श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : भक्ति द्वारा जीवन में प्रभु को लाने से प्रभु की परछाई के रूप में सद्गुण और अच्छाइयां हमारे जीवन में आते हैं । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



हम एक-एक करके जीवन में सद्गुणों को, अच्छाइयों को लाएंगे तो यह जीवन भी कम पड़ जाएगा फिर भी सद्गुण और अच्छाइयां पूर्ण रूप से जीवन में नहीं आ पाएंगे । पर अगर हम जीवन में भक्ति से प्रभु को ले आते हैं तो सद्गुण और अच्छाइयां स्वतः ही पूर्ण मात्रा में आ जाएंगे क्‍योंकि वे तो प्रभु की परछाई हैं ।


इसलिए अगर जीवन में सद्गुणों को, अच्छाइयों को लाना है तो भक्ति के द्वारा प्रभु को जीवन में ले आए । सभी सद्गुण और अच्छाइयां स्वतः ही अपने आप जीवन में आ जाएंगे ।


सद्गुणों और अच्छाइयों को जीवन में उतारना कलियुग में बहुत कठिन है । यह युग का प्रभाव है कि सद्गुण जीवन में स्थिर नहीं रहते । व्‍यक्ति को पता होता है कि झूठ बोलने से पाप लगता है पर वह दैनिक चर्या में बहुत बार झूठ बोलता है । झूठ बोलना उसकी आदत बन जाती है । वैसे ही जीव को पता होता है कि चोरी करना पाप है फिर भी व्‍यापारी कर बचाने के लिए धन की हेरा−फेरी करके कर की चोरी करता है ।


पर जब भक्ति के द्वारा प्रभु जीवन में आते हैं तो स्वतः ही असत्‍य बोलना बंद हो जाता है, चोरी बंद हो जाती है । जीवन में अहिंसा, सदाचार आदि सभी सद्गुण आ बसते हैं ।


सभी सद्गुण प्रभु की परछाई हैं । प्रभु जहाँ भी जाते हैं वे साथ जाते हैं । जैसे हम कहीं जाते हैं तो हमें अपनी परछाई को बुलाना नहीं पड़ता, वह स्वतः ही साथ आती है वैसे ही प्रभु जहाँ जाते हैं उनकी परछाई रूपी सद्गुणों को बुलाना नहीं पड़ता, वे स्वतः ही साथ चले आते हैं ।


सभी संतों का जीवन देखें तो यह प्रतीत होगा कि प्रभु से जुड़ने से पूर्व उनमें बुराइयां थी पर प्रभु से जुड़ने पर सद्गुण उनके भीतर स्वतः जागृत हो गए । एक जीवन्‍त उदाहरण श्री वाल्मीकिजी का है जो की डाकू थे और जंगल में लूटपाट करते थे । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी वहाँ से निकले और उन्‍होंने उन्‍हें "राम-राम" का मंत्र दिया । श्री वाल्मीकिजी "राम" नाम का जप नहीं कर पाए । "राम" नाम उनके मुँह से निकला ही नहीं । तो देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने उन्‍हें उल्‍टा करके मरा-मरा जपने को कहा । मरा-मरा जपते जपते "राम-राम" निकलने लग गया और श्री वाल्मीकिजी प्रभु से जुड़ गए । भक्ति जागृत हुई और वे डाकू से ऋषि बन गए । सभी सद्गुण एक-एक करके स्वतः उनके अंदर जागृत हो गए ।


दूसरी बात जो प्रभु को जीवन में लाने से होती है वह यह कि जैसे ही प्रभु जीवन में आते हैं, दुर्गुण और बुराइयां स्वतः ही भाग खड़े होते हैं । यहाँ भी ऋषि श्री वाल्मीकिजी का उदाहरण देखें कि उनके जीवन का असत्‍य, चोरी, हिंसा आदि अवगुण और बुराइयां स्वतः ही प्रभु से जुड़ते ही नष्‍ट हो गए ।


सारांश यह है कि प्रभु को जीवन में लाने पर दो कार्य होते हैं । पहला, सद्गुण और अच्छाइयां जीवन में आते हैं और दूसरा अवगुण और बुराइयां जीवन से चले जाते हैं ।


प्रभु को जीवन में लाए बिना हम कुछ भी साधन कर लें फिर भी जीवन के अन्‍त तक भी प्रयास करने पर यह दोनों होना संभव नहीं है । प्रभु को जीवन में लाते ही स्वतः बिना प्रयास के ये दोनों बातें संभव हो जाती हैं ।


प्रभु के जीवन में आते ही जीव में ऐसा परिवर्तन आता है और वह अच्छाइयों की तरफ आकर्षित होता है क्‍योंकि इससे प्रभु प्रसन्‍न रहते हैं । वह बुराइयों से दूर चला जाता है क्‍योंकि इससे प्रभु को कष्‍ट होता है ।


जीव का लक्ष्‍य हो जाता है कि वह प्रभु को प्रसन्‍न रखे और वेदना न दे, इसलिए वह सत्कर्म करता है और गलत कर्म से बचता है ।


इसलिए भक्ति के द्वारा जीवन में प्रभु को अविलम्‍ब लाने का प्रयास करना चाहिए जिससे जीवन में एक बड़ा परिवर्तन स्वतः ही हो जाए । जीवन में प्रभु को जितनी जल्‍दी लाएंगे उतनी जल्‍दी यह परिवर्तन होगा । इसलिए बाल अवस्‍था में ही बच्‍चों को भक्ति के संस्‍कार देने चाहिए जिससे वे प्रभु से जुड़ सके और शुरू से ही उनके भीतर सद्गुण विकसित हो सके और अवगुणों के प्रवेश पर रोक लग सके ।