लेख सार : सिर्फ भक्ति का ही सामर्थ्य है कि वह जीव के अंदर कलियुग के दोषों को समाप्त करके जीव में प्रभु तक पहुँचने की पात्रता ला देती है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
कलियुग का प्रभाव है कि मनुष्य काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्ष्या इत्यादि दोषों से घिरा रहता है । यह इस युग का प्रभाव है कि इन दोषों की अधिकता जीवन में रहती है ।
पर जो कलियुग में भी भक्ति के द्वारा प्रभु से जुड़ जाते हैं उनके सभी दोष धीरे-धीरे खत्म हो जाते हैं । कलियुग के दोषों का सच्चे भक्त पर कोई प्रभाव नहीं होता । प्रभु की भक्ति में इतना सामर्थ्य है कि वह जीव को प्रभु से जोड़कर युग के दोष का भी निवारण स्वतः ही कर देती है ।
युग के दोष सभी पर अपना प्रभाव डालते हैं । उनसे कोई बच नहीं सकता । अगर जीव कलियुग में जन्मा है तो उसमें काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्ष्या इत्यादि दोषों की अधिकता होगी ।
कलियुग में काम वासना अपने चरम पर होती है क्योंकि उत्तेजना के बहुत साधन उपलब्ध होते हैं । जीव बहुत कामुक हो जाता है । इसी प्रकार कलियुग में कामनाओं यानी इच्छाओं की भी भरमार होती है । नाना प्रकार की कामनाएं जीव के मन में घर कर लेती हैं और उसकी पूर्ति के लिए जीव जीवन भर प्रयत्न करता रहता है । कलियुग में जीव क्रोधी होता है और छोटी-से-छोटी बात उसके क्रोध की ज्वाला को प्रज्वलित कर देती है । कलियुग में जीव अहंकारी होता है । उसे धन का अहंकार, पद का अहंकार, सौन्दर्य का अहंकार, प्रतिष्ठा का अहंकार, ज्ञान का अहंकार, सम्पत्ति का अहंकार होता है । कलियुग में जीव लोभी भी होता है । जितना है उससे भी अधिक का लोभ बना रहता है । सात पीढ़ियों के लिए भी इकट्ठा करने के बाद भी उसकी तृष्णा शान्त नहीं होती । कलियुग का जीव ईर्ष्यालु होता है । दूसरे की उन्नति उससे देखी नहीं जाती । दूसरे की सम्पत्ति, पद, प्रतिष्ठा, सौन्दर्य, ज्ञान इत्यादि की वह ईर्ष्या करता है ।
सभी दोषों की चर्चा करने के बाद अब देखें कि भक्ति उन सभी पर कैसे प्रभाव डालती है ।
भक्ति जीव को काम से "राम" की तरफ मोड़ देती है । इसका जीवन्त उदाहरण गोस्वामी श्री तुलसीदासजी हैं जो अपनी पत्नी के प्रेम में उफनती नदी में लाश (मुर्दे) को लकड़ी समझ कर उसे पकड़ कर नदी पार कर गए और सांप को रस्सी समझकर उसे पकड़ कर अपने मायके गई पत्नी से मिलने पहुँच गए । उनकी पत्नी भगवती रत्नावली ने उन्हें धिक्कारा कि जितना वेग कामसुख पाने के लिए लगाया उसका आधा भी "राम" सुख पाने के लिए लगाते तो प्रभु मिल जाते । वहीं से गोस्वामी श्री तुलसीदासजी का जीवन परिवर्तित हुआ और उनमें प्रभु के लिए भक्ति जागृत हुई ओर काम को छोड़ उन्होंने "राम" से नाता जोड़ा ।
भक्ति जीव की कामनाओं को भी कम कर देती हैं और अंत में कामनाओं को खत्म ही कर देती है । अंत में एक ही कामना बचती है कि प्रभु से एकाकार हो जाया जाए । भक्ति से पहले कामनाओं की भरमार थी और जीव व्याकुल रहता था । भक्ति के बाद कामनाएं शान्त हो जाती है और जीव भी शान्त हो जाता है ।
भक्ति जीव के क्रोध को भी शान्त करती है । जीव को प्रभु के दर्शन हर जीव में होने लगते हैं फिर वह किस पर क्रोध करे । सभी तरफ तो प्रभु हैं इसलिए उसके क्रोध का वेग ही शान्त हो जाता है और वह क्रोध रहित हो जाता है । किसी भी परिस्थिति में उसे क्रोध नहीं आता ।
भक्ति जीव के अहंकार का भी नाश करती है क्योंकि जीव को पता चल जाता है कि प्रभु मिलन में अहंकार सबसे बड़ी बाधा है । प्रभु को सबसे अप्रिय जीव का अहंकार लगता है । श्रीमद् भागवतजी, श्रीमद् भगवद् गीताजी एवं श्री रामचरितमानसजी तीनों श्रीग्रंथों में इस बात का प्रतिपादन मिलेगा कि अहंकार रहित जीव ही प्रभु को पा सकता है ।
भक्ति जीव के लोभ को भी समाप्त करती है । जीव को भगवन्नाम की कमाई ही सच्ची कमाई लगने लगती है । परिवार पालने जितना वह संसारी धन कमाता है और शेष ऊर्जा वह भगवन्नाम की कमाई में लगाता है ।
भक्ति जीव की ईर्ष्या का खात्मा कर देती है । दूसरे की उन्नति देख कर अब वह प्रसन्न होता है क्योंकि अब वह सबमें भगवत्दर्शन करता है । वह सबका मंगल चाहता है । पड़ोसी की पच्चीस लाख की गाड़ी और खुद की दो लाख की गाड़ी देखकर अब वह यह सोचता है कि दोनों गाड़ियों का काम तो एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाना है फिर क्या फर्क पड़ता है क्योंकि पड़ोसी की पच्चीस लाख की गाड़ी भी वही काम करती है जो मेरी दो लाख की गाड़ी करती है ।
इसलिए कलियुग में भक्ति को जीवन में प्रधानता देनी चाहिए जिससे कलियुग के दोष स्वतः ही धीरे-धीरे समाप्त हो जाए और हम प्रभु तक पहुँचने के लिए सिद्ध हो जाए ।