श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : प्रभु भक्ति के साथ जीवन यापन एवं सैर-सपाटा, मौज-मस्ती, ऐशो-आराम और आने वाली पीढ़ियों के लिए धन-सम्‍पत्ति संग्रह में लगे जीवन के बीच तुलना की गई है । मानव जीवन के श्रेष्‍ठतम उपयोग पर लेख प्रकाश डालता है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



एक कहानी प्रायः सबने सुन रखी होगी । एक ज्ञानी नांव में बैठकर नदी पार करते वक्त नाविक से अपना ज्ञान बखान कर रहा था । ज्ञानी नाविक से कह रहा था कि तुमने पढ़ा नहीं, अनपढ़ हो इसलिए तुम्हारा चौथाई जीवन बेकार हो गया । तुम्हें अमुक बात का ज्ञान नहीं इसलिए आधा जीवन बेकार हो गया, तुम्हें अमुक बात का भी भान नहीं इसलिए पौना जीवन बेकार हो गया । इतने में भयंकर वर्षा होने लगी, वर्षा का जल नांव में भर गया और नदी में भी भयंकर उफान उठा । अब तक नाविक चुप बैठा था और सुन रहा था । अब नाविक के बोलने की बारी थी, उसने ज्ञानी से पूछा कि आपको तैरने का ज्ञान है क्या ? ज्ञानी ने कहा - नहीं, तो नाविक बोला अब तो आपका पूरा जीवन ही बेकार हो गया । यह कह कर नाविक डूबती नांव से तैर कर अपनी जान बचाने के लिए कूद पड़ा । ज्ञानी को तैरना नहीं आता था इसलिए नांव के साथ ही डूब गया ।


आध्यात्मिक तौर पर इस कथा को ऐसे समझना चाहिए । एक आधुनिक दौर का मौज मस्ती करने वाला मौजी नामक व्यक्ति एक सरल हृदय प्रभु भक्ति में रमने वाले भक्त से पूछता है कि क्या तुमने विदेश में सैर सपाटा किया । भक्त कहता है - नहीं, तो मौजी कहता है कि तुमने अपना चौथाई जीवन व्यर्थ कर दिया । मौजी दूसरा प्रश्न भक्त से पूछता है कि क्या तुमने जीवन में मौज-मस्ती, ऐशो-आराम किया । भक्त कहता है - नहीं, तो मौजी कहता है कि तुमने अपना आधा जीवन ही व्यर्थ कर दिया । मौजी तीसरा प्रश्न भक्त से पूछता है कि क्या तुमने अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए धन-सम्‍पत्ति की व्यवस्था की । भक्त कहता है - नहीं, तो मौजी कहता है कि तुमने अपना पौना जीवन व्यर्थ कर लिया ।


मौजी भक्त के लिए अफसोस करता है कि भक्ति में रम के क्या जीवन जिया, न सैर-सपाटा किया, न ऐशो-आराम किया और न ही आने वाली पीढ़ियों के लिए धन-सम्‍पत्ति की व्यवस्था की । क्योंकि मौजी ने यह सब कुछ भरपूर मात्रा में किया था, इसलिए उसे अपने आप पर गर्व अनुभव होने लगता है ।


इतने में मौजी के दरवाजे मृत्यु ने दस्तक दी । वह भयंकर रूप से बीमार हुआ और मृत्यु शय्या पर आ गया । भक्त मौजी के पास खड़ा था पर उसे कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ी । मौजी की अन्‍तरात्‍मा ने ही मौजी से पूछ लिया कि क्या तुमने प्रभु भक्ति करके भवसागर पार करने का उपाय किया । मौजी ने काँपते हुए स्वर से कहा - ''नहीं किया'' । अन्‍तरात्‍मा ने धिक्कारते हुए कहा कि तुमने अपना पूरा मानव जीवन ही व्यर्थ कर लिया । जैसे ज्ञानी का नदी पार नहीं कर पाने के कारण अंत भयंकर हुआ, वैसे ही मौजी का भवसागर पार नहीं कर पाने के कारण अंत भयंकर हुआ । दोनों ही डूब गए, एक नदी में, दूसरा भवसागर में ।


अधिकतर मनुष्यों की विडंबना भी यही है कि मानव जीवन जीने की कला तो बहुत अच्छी तरह से सीख ली और उसे प्रभावी अंजाम देने में लगे हुए हैं । पर मानव जीवन के बाद उनका क्या हश्र होगा यह पहलू उनसे अछूता रह गया क्योंकि उसके लिए तैयारी करना शायद वे भूल गए ।


वर्तमान जीवन जीने की कला तो जानवर भी बहुत अच्छी तरह से जानते हैं । पर मृत्यु उपरान्त की व्यवस्था जैसे आवागमन से मुक्ति, प्रभु के श्री कमलचरणों में सदैव के लिए आश्रय और परमानंद की प्राप्ति तो सिर्फ और सिर्फ मानव जीवन में किए प्रयासों से ही संभव हो सकता है । यह प्रयास भक्ति का है, यह प्रयास प्रभु से जुड़ने का है, यह प्रयास प्रभु के बनने का है, यह प्रयास प्रभु को अपना बनाने का है ।


वर्तमान जीवन में ऐशो-आराम, सैर-सपाटा, अगली पीढ़ी हेतु धन संग्रह के प्रयास बहुत तुच्छ और गौण हैं । श्रेष्‍ठतम प्रयास निश्छल भक्ति द्वारा प्रभु के प्रिय बनकर मृत्यु उपरान्त सदैव के लिए निश्चिंत होने का है ।


यह स्वर्णिम अवसर प्रभु ने हमें मानव जीवन देकर दिया है, इसे गँवाना नहीं चाहिए । अगर गँवा दिया तो फिर कितनी योनियों के बाद और इन योनियों के कर्मफल के कारण कितनी यातनाओं को भोगने के बाद यह मानव जीवनरूपी अवसर दोबारा कब मिलेगा । यह सोचकर हमें अविलम्ब इस वर्तमान मानव जीवनरूपी अवसर का प्रभु भक्ति में डूबकर श्रेष्‍ठतम उपयोग करना चाहिए ।