लेख सार : प्रभु का सामर्थ्य हमारी कल्पना शक्ति से भी समझा नहीं जा सकता । केवल भक्ति ही है जिसके द्वारा प्रभु की सामर्थ्य शक्ति देखने की कला हम सीख सकते हैं । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
एक छोटे से गड्ढे में हजारों चींटियों को देखें । एक किलोमीटर की परिधि में करोड़ों खरबों चींटियां रहती हैं । प्रभु कितने सामर्थ्यवान हैं कि इन सबकी पुकार प्रभु सुनते हैं । सबका ख्याल प्रभु रखते हैं ।
विश्व में असंख्य प्राणी हैं जो जलचर, थलचर और नभचर के रूप में रहते हैं और उन सबका भार प्रभु ने उठा रखा है । उन सबकी जिम्मेदारी प्रभु ने ले रखी है । इससे प्रभु के सामर्थ्य का थोड़ा-सा परिचय मिलता है ।
इतने सामर्थ्यवान प्रभु को छोड़कर हमें अन्य किसी से आशा नहीं रखनी चाहिए । हमें अन्य किसी का दामन भी कभी नहीं पकड़ना चाहिए ।
पर हम जीवन में ऐसी भूल कर बैठते हैं, संसार से आशा रखते हैं, किसी संसारी का दामन पकड़ते हैं जो कि बिल्कुल गलत है ।
आशा रखनी चाहिए तो सिर्फ प्रभु से, विश्वास करना चाहिए तो सिर्फ प्रभु का । पर हम संसारी से आशा रखते हैं, संसारी का विश्वास करते हैं । इसीलिए हमें अन्त में पछताना पड़ता है ।
केवल प्रभु ही हमारे विश्वास को निभा सकते हैं । अन्य किसी का सामर्थ्य नहीं कि वह हमारी आशा को पूरी कर सके ।
हमारी आशा की पूर्ति में कोई संसारी तो सिर्फ माध्यम बनता है पर असल में आशा की पूर्ति करने वाले प्रभु ही होते हैं । हमें हर आशा की पूर्ति के पीछे प्रभु के अदृश्य श्रीहाथों को देखने की कला आनी चाहिए । जो व्यक्ति प्रभु के अदृश्य श्रीहाथों को देखने की कला सीख जाता है उसे हर तरफ प्रभु की अनुकम्पा ही दिखती है ।
एक जीवन्त प्रसंग श्रीमहाभारत का है । श्री भीमसेनजी के पौत्र महाबली श्री बर्बरीकजी (जिनकी आज कलियुग में श्री कृष्णजी के रूप में श्री खाटूश्यामजी के श्री श्यामबाबा के नाम से पूजा होती है) का पवित्र शीश का दान प्रभु श्री कृष्णजी ने लिया । महाबली श्री बर्बरीकजी ने इच्छा व्यक्त की और प्रभु से कहा कि मैं महाभारत का युद्ध देखना चाहता हूँ । अमृत से सींचकर प्रभु श्री कृष्णजी ने उनका शीश एक पहाड़ पर स्थापित कर दिया । उन्होंने पूरा युद्ध देखा । युद्ध समाप्त होने पर श्री युधिष्ठिरजी को अपने धर्मपालन पर अभिमान हुआ और उन्होंने कहा कि युद्ध मेरे धर्म के कारण जीता गया । श्री अर्जुनजी को अपनी धनुर्विद्या पर अभिमान हुआ और उनका मानना था कि युद्ध उनके कारण जीता गया । श्री भीमसेनजी को अपनी गदाशक्ति पर अभिमान था और उनका कहना था कि युद्ध उनके गदा कौशल के कारण जीता गया । प्रभु श्री कृष्णजी सब देख रहे थे । प्रभु मुस्कुराए और बोले की इसका निर्णय तो सिर्फ महाबली श्री बर्बरीकजी ही कर सकते हैं जिन्होंने पूरा युद्ध देखा है । सभी महाबली श्री बर्बरीकजी के पास पहुँचे । महाबली श्री बर्बरीकजी ने कहा कि न तो युद्धभूमि में मैंने धर्म देखा, न ही धनुर्विद्या देखी और न ही गदाशक्ति देखी - मैंने तो सिर्फ प्रभु श्री कृष्णजी का अदृश्य रूप से श्रीसुदर्शन चक्रराज को देखा जो कि सभी विरोधियों का विध्वंस कर रहा था । यह युद्ध का जीवन्त सत्य था कि करने वाले प्रभु श्री कृष्णजी थे बाकि सभी पाण्डव तो निमित्त मात्र थे । प्रभु के अदृश्य श्रीहाथों को, जो महाबली श्री बर्बरीकजी ने देखा, उसे देखने की कला हमें भी सीखनी चाहिए ।
यह कला सीखते ही हमें प्रभु के सामर्थ्य का परिचय हो जाएगा और फिर अपने जीवन का हर व्यवहार हम प्रभु से करने लगेंगे । फिर हम पूरी तरह प्रभु की तरफ मुड़ जाएंगे और पूरी तरह प्रभु के हो जाएंगे । यही जीवन का सार है ।
जीव से अपेक्षा होती है कि अपना हर व्यवहार प्रभु से करे । प्रभु को केन्द्र में रखकर हर व्यवहार प्रभु से करने की कला जिसने सीख ली वह मानव जीवन की सच्ची ऊँचाइयों को छू लेता है ।
यह कला भक्ति के माध्यम से हम सीख सकते हैं । सच्चा भक्त अपना हर व्यवहार प्रभु से रखता है क्योंकि उसे प्रभु के सामर्थ्य का, प्रभु के अदृश्य श्रीहाथों का पता होता है ।
भक्ति हमें प्रभु के सामर्थ्य को देखने की कला सिखाती है । प्रभु का सामर्थ्य जानते ही हम प्रभु की तरफ आकर्षित होते हैं । आकर्षण हुआ तो फिर हर व्यवहार प्रभु से करने का स्वभाव बन जाता है ।
इसलिए प्रभु के सामर्थ्य को जानना जरूरी है । जो भक्ति करता है उसे हर ओर प्रभु के सामर्थ्य के दर्शन होने लगते हैं । वह प्रभु के सामर्थ्य को कभी भूलता नहीं है । जीवन जीने की सच्ची कला यही है कि प्रभु के सामर्थ्य को हमेशा याद रखा जाए ।