श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : संसार में जो लौकिक सुख है वह अंत में घट जाता है । पर प्रभु भक्ति में जो अलौकिक आनंद है वह दिनों दिन बढ़ता ही जाता है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



संसार के सभी प्रकार के सुख अंत में घट जाएंगे जैसे काम वासना का सुख, रुपए का सुख अंत में घट जाते हैं ।


उदाहरण स्‍वरूप एक पुरुष को काम का वह सुख 65 वर्ष की अवस्‍था में नहीं मिलेगा जो उसे 22 वर्ष की अवस्‍था में मिलता था । एक धनवान व्‍यक्ति के लिए धन का सुख धन का सब प्रकार से उपभोग करने के बाद अंत में घट जाएगा । धन से कितना खरीदेगा, कितना घूमेगा, कितनी विदेश यात्रा करेगा - अंत में धन का सुख घट जाएगा । आरोग्‍य का सुख भी बुढ़ापे में बीमारी के आते ही नष्‍ट हो जाएगा । परिवार का सुख भी बच्‍चे बड़े होने पर घट जाएगा क्‍योंकि बच्‍चे बड़े होने पर अपना स्वतन्त्र जीवन जीने के लिए चले जाएंगे । बेटी अपने ससुराल चली जाएगी और बेटे की शादी होने पर उसका अपना परिवार हो जाएगा । परिवार में बुजुर्ग अकेले हो जाते हैं और इस प्रकार परिवार का सुख भी घट जाता है । पहले उसे केन्‍द्र में रखकर परिवार चलता था, उसका निर्णय मान्‍य होता था । अब उसके बेटे केन्‍द्र में आ जाएंगे और बेटे का निर्णय सर्वोपरि होगा ।


सारांश यह है कि सभी प्रकार के सुख अंत में घट जाते हैं । यह एक शाश्‍वत सत्‍य है । सभी लौकिक सुखों को अंत में घटना ही है ।


अब आइए उस अलौकिक आनंद की बात करें जो दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है । उस अलौकिक आनंद का नाम है - भक्ति । पहली बात यह ध्‍यान में लेनी चाहिए कि भक्ति आनंद का नाम है सुख का नहीं । सुख आनंद की पहली सीढ़ी है और आनंद उस सुख की सर्वोच्च अवस्‍था है । संसार में हमें सुख मिल सकता है पर आनंद नहीं क्‍योंकि संसार में आनंद है ही नहीं ।


एक संत ने एक बहुत सुन्‍दर कथा सुनाई । उन्‍होंने कहा कि जब पृथ्वी माता को प्रभु ने जल के ऊपर स्थित किया तो प्रभु ने अपने श्रीकमलचरणों को शेषशैया पर से लेटे-लेटे ऊपर उठाया तो वहाँ से कीर्ति, सुख, ऐश्‍वर्य, वैभव इत्‍यादि पृथ्वी लोक में चले गए । पर एक चीज प्रभु के श्रीकमलचरणों को छोड़कर नहीं गई । वह प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही चिपकी र‍ही । माता जो की प्रभु के श्रीचरणों सेवा कर रही थी, उन्‍होंने ध्‍यान लगाकर देखा तो ज्ञात हुआ कि आनंद प्रभु के श्रीकमलचरणों को छोड़कर गया ही नहीं और वही चिपका रहा । इसलिए आनंद हमें संसार में मिलेगा ही नहीं ।


आनंद पाने का एकमात्र साधन है प्रभु की भक्ति । भक्ति करने पर आनंद दिनों दिन बढ़ता ही जाता है । जो भक्‍त को 22 वर्ष की अवस्‍था में भक्ति का आनंद मिलता था, भक्ति में और परिपक्‍वता आने पर 45 वर्ष में वह आनंद कितने गुना बढ़ जाएगा और 65 वर्ष में वह आनंद पराकाष्‍ठा को छू लेगा । मृत्यु के निकट की बेला में भी भक्ति उसे आनंद प्रदान करती रहेगी ।


सूत्र साफ है कि संसार के सभी सुख घटते हैं एकमात्र भक्ति का आनंद ही है जो दिनों दिन बढ़ता ही चला जाता है ।


इसलिए हमें संसार के लौकिक सुखों को तिलांजलि देकर प्रभु की भक्ति में रमना चाहिए जो कि हमें अंत तक आनंद प्रदान करने की क्षमता रखती है ।


पर मनुष्‍य लौकिक सुखों में ही उलझ कर रह जाता है और अंत तक उसमें ही उलझा रहता है । अंत में उसका सुख भी कम हो जाता है और अपने जीवन की बाजी भी वह हार जाता है ।


हमें चाहिए कि हम भक्ति के द्वारा प्रभु से जुड़ें तो प्रभु के श्रीकमलचरणों में चिपके आनंद की अनुभूति कर पाएंगे । जितना-जितना हमारा मस्‍तक प्रभु के श्रीकमलचरणों में भक्ति के द्वारा झुकेगा उतना-उतना वहाँ से आनंद हमें प्राप्‍त होता चला जाएगा ।


एक बार आनंद का स्‍वाद हमने चख लिया तो सांसारिक सुख के पीछे दौड़ने की हमारी लालसा ही खत्‍म हो जाएगी । जिसने मीठा आम चख लिया वह कड़वा नीम थोड़े ही खाएगा । ऐसी ही अवस्‍था हमारी होगी जब हम भक्ति के बल पर अलौकिक आनंद की अनुभूति कर लेंगे तो सांसारिक सुख की कामना ही खत्‍म हो जाएगी ।


हमें अपने बुढ़ापे की तैयारी करनी चाहिए । हमें सोचना चाहिए कि हमें सांसारिक सुख की घटी हुई मात्रा चाहिए या अलौकिक आनंद की बढ़ी हुई मात्रा चाहिए । जैसे हम अपनी पूंजी का निवेश इस प्रकार करते हैं कि बुढ़ापे में वह बढ़ कर हमें उपलब्‍ध हो वैसे ही हमें भक्ति में अपना समय निवेश करना चाहिए जिससे बुढ़ापे में वह हमें बढ़ा हुआ अलौकिक आनंद प्रदान कर सके ।


हमें जरूरत है युवावस्‍था से ही भक्ति के मार्ग पर चलने की जिससे हमें आनंद प्राप्‍त हो और वह आनंद दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाए और बुढ़ापे तक वह आनंद अपनी पराकाष्‍ठा तक पहुँच जाए ।