लेख सार : कलियुग की बुराइयों के बीच रहकर भी अगर हम उन्हें ग्रहण नहीं करके सात्विक बने रहते हैं तो हम प्रभु को पाने योग्य बन जाते हैं । पर ऐसा कर पाना सिर्फ भक्ति के द्वारा ही संभव है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
कलियुग प्रभु को पाने का सबसे सरलतम युग है । क्योंकि इस युग में सात्विकता का ह्रास बहुत मात्रा में होता है इसलिए इस युग को कठिन मान कर प्रभु को पाने का साधन बड़ा सरल बना दिया गया है ।
कलियुग में बुराइयां सिर चढ़ कर बोलती है पर बुराइयों के बीच रहकर जो सात्विक जीवन जी लेता है वह प्रभु तक पहुँच जाता है । जैसे गंदे पानी में रहकर कमल गंदे पानी को ग्रहण नहीं करता और स्वच्छ रहता है इसलिए प्रभु को अर्पण होने योग्य बन जाता है, वैसे ही अगर हम कलियुग की बुराइयों के बीच रहकर उन्हें ग्रहण नहीं करके सात्विक रहते हैं तो हम भी प्रभु को पाने योग्य बन जाते हैं ।
सतयुग में सात्विकता का बोलबाला था । सभी सात्विक और धर्मनिष्ठ थे । बुराइयां बहुत कम थी इसलिए प्रभु को पाने का मार्ग कठिन था । ऐसा क्यों था ? इसलिए कि सभी अच्छे थे उनमें से कुछ अच्छे जो प्रभु तक पहुँचने की पात्रता रखते थे, उन्हें जांचने की विधि कठिन थी ।
पर कलियुग में बुराइयों का बोलबाला है । बुराइयों के बीच अच्छा बने रहना बड़ा कठिन होता है । क्योंकि बुराइयां बड़ी आसानी से हमें अपने गिरफ्त में ले लेती हैं । बुराइयों के बीच रहकर बुराइयों से बचना बड़ा कठिन होता है । इसलिए जिसने भी ऐसा किया वह स्वतः ही प्रभु के पास पहुँचने की पात्रता पा लेता है ।
बुराइयों के बीच अच्छे बने रहने का एकमात्र साधन है प्रभु की भक्ति । भक्ति हमें भीतर से पवित्र करती है जो बाहर हमारे आचरण में झलकता है ।
इसका सबसे जीवन्त उदाहरण श्री विभीषणजी हैं । लंका में बुराइयों के बीच रहते हुए उन्होंने भक्त शिरोमणि प्रभु श्री हनुमानजी से सुन्दरकाण्ड में कहा था कि मैं (विभीषण) लंका में ऐसे रहता हूँ जैसे दांतों के बीच डर-डर के जीभ रहती है । जीभ को सावधानी रखनी होती है कि वह दांतों के बीच नहीं आए, नहीं तो कट जाएगी । वैसे ही बुराइयों के बीच रहकर श्री विभीषणजी सावधानी रखते थे कि वे बुराइयों की चपेट में नहीं आए । क्या कारण था जो श्री विभीषणजी जी ऐसा कर पाए ? इसका एकमात्र कारण था कि प्रभु भक्ति के कारण उन्होंने अपने भीतर के सात्विक तत्व को बरकरार रखा था । यही कारण था कि प्रभु ने उन्हें शरणागत होने पर तुरंत अपना लिया । प्रभु ने श्री विभीषणजी को कहा कि तुम बुराइयों के बीच भी सात्विक वृत्ति से रहते हो इसलिए मुझे अति प्रिय हो । प्रभु ने श्री विभीषणजी का राज्याभिषेक किया और उन्हें लंका का राज दे दिया । प्रभु सकुचा रहे थे कि कहीं मैं श्री विभीषणजी को कम तो नहीं दे रहा हूँ । श्री विभीषणजी के ऊपर रावण द्वारा छोड़ी शक्ति को प्रभु ने स्वयं के ऊपर लिया । भक्ति का सामर्थ्य देखें कि भक्ति के कारण प्रभु ने भक्त का बाल भी बांका नहीं होने दिया ।
प्रभु को श्री विभीषणजी का बुराइयों के बीच रहकर सात्विक वृत्ति रखना प्रिय लगा । इससे दो सिद्धांत स्पष्ट होते हैं । पहला सिद्धांत, प्रभु को सात्विक वृत्ति के लोग प्रिय हैं । दूसरा सिद्धांत, सात्विक वृत्ति रखने का सबसे सरलतम उपाय भक्ति है ।
इसलिए कलियुग में भक्ति में रम कर प्रभु को पाने का सबसे सरलतम साधन हमें करना चाहिए । कलियुग में प्रभु को पाना बहुत सरल है । न तप की जरूरत है, न अन्य कठिन साधनों की जरूरत है जो सतयुग, त्रेता और द्वापर में नितान्त जरूरी थे । कलियुग में जरूरत है तो मात्र भक्ति की ।
भक्ति कलियुग का सबसे सरल और सबसे उत्तम साधन है जो कभी विफल नहीं होती ।
भक्ति मुख्यतः दो कार्य करती है । पहला, हमारा आचरण शुद्ध करती है और उसे शुद्ध बनाए रखती है । दूसरा, इस कारण हमें प्रभु से मिलने का पात्र बना देती है । श्री विभीषणजी से प्रभु इसलिए मिले और उन्हें अपनी शरण में लिया क्योंकि उनका आचरण शुद्ध था ।
हमारी भक्ति कितनी सही दिशा में अग्रसर हो रही है इसका अनुमान हमारे आचरण से लगाया जा सकता है । जितना हमारा आचरण शुद्ध होता चला जाएगा उतनी हमारी भक्ति प्रगाढ़ हो रही है - ऐसा समझना चाहिए ।
प्रभु तक पहुँचने के लिए हमारा शुद्धिकरण होना अति आवश्यक है और यह कार्य भक्ति स्वतः ही कर देती है । एक सच्चा भक्त स्वतः ही अहिंसा, सत्य, नीति एवं अन्य सद्गुणों के आभूषणों को धारण करके चलता है ।
इसलिए कलियुग जो प्रभु को पाने का सबसे सरल युग है उसमें भक्ति करके प्रभु तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए ।