लेख सार : सफलता और सुख के समय प्रभु की कृपा एवं विफलता और दुःख के समय में प्रभु की दया को याद रखने पर केंद्रित लेख है । वास्तव में, हम शायद ही कभी हमारी सफलता और सुख में प्रभु की कृपा को याद रखते हैं और वास्तव में, हम शायद ही कभी हमारी विफलता और दुःख के लिए प्रभु को दोष देने से चूकते हैं । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
हमारे जीवन में जो कुछ भी अनुकूल घटना घट रही है, जो अनुकूलता है उसे प्रभु की कृपा प्रसादी ही माननी चाहिए । ऐसे ही हमारे जीवन में जो प्रतिकूल घटना घट रही है, जो प्रतिकूलता है उसे स्वयं के कर्मफल (पूर्व संचित कर्मों का कर्मफल) जिसको प्रभु ने दया करके बहुत कम करके हमें भोगने के लिए दिया है, ऐसा मानना चाहिए । हमारा दृष्टिकोण ऐसा होना चाहिए कि दोनों ही अवस्था में प्रभु की कृपा के दर्शन हों, प्रभु की कृपा का सदैव हमें भान रहे क्योंकि दोनों अवस्थाओं में प्रभु कृपा को देखने वाला भक्त ही प्रभु का प्रिय होता है ।
इस अनुपम सूत्र का आभास हमारे जीवनदृष्टि में शुद्धता आने पर ही संभव है । क्या है यह अनुपम सूत्र । पहला सूत्र - अनुकूलता में प्रभु कृपा का सदैव दर्शन करना चाहिए । दूसरा सूत्र - प्रतिकूलता में प्रभु की दया (विपरीत कर्मफल को प्रभु ने कम करने की दया की) इस भाव का सदैव दर्शन करना चाहिए ।
पर हम मूर्ख जीव अनुकूलता को अपने संचित पुण्यकर्मों का स्वअर्जित फल समझ कर भोगते हैं और प्रतिकूलता प्रभु द्वारा भेजी गई देव बाधा रूप में मानते हुए प्रभु के ऊपर उसका दोष मढ़ने से भी नहीं चूकते । कितना मूर्ख जीव है कि प्रतिकूलता में प्रभु दया के दर्शन नहीं करके उलटे प्रभु को दोष देने के भाव को अपने मन और बुद्धि में जागृत कर बैठता है । प्रभु के प्रति दोष का भाव हमारे मन में कभी पनपना भी नहीं चाहिए क्योंकि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कि मेरे प्रभु से कोई दोषयुक्त गलती हो, ऐसी कल्पना मात्र भी करना बहुत बड़ा पाप है । पर हम जीवन में अक्सर ऐसा करते हैं ।
उदाहरण स्वरूप एक घर का जवान बेटा, बूढ़े माता-पिता का एकमात्र सहारा, बहनों का एकमात्र भाई जब किसी दुर्घटना में चला जाता है तो परिवार के लोग यह कहते मिलेंगे कि प्रभु ने अन्याय कर दिया । यह सोच ही कितनी अपवित्र है, जुबान पर ऐसा शब्द आना कितना बड़ा पातक है । क्योंकि क्या हमें उस मृतक के पूर्व जन्मों के लेखे-जोखे का, संचित कर्मफल का पता भी है कि उसके क्या क्या पूर्व कर्म रहे हैं और किस कर्म के भोग भोगने के लिए ऐसा हुआ ।
प्रतिकूलता के वक्त हमारी पवित्र सोच यह होनी चाहिए कि मेरे प्रभु ने मेरे संचित बुरे कर्मों का फल कई गुना घटाकर मुझे भोगने हेतु दिया है । अगर मेरे संचित बुरे कर्मों का फल मेरे प्रभु नहीं घटाते तो मैं भोगने में असमर्थ होता (यानी जितने पापकर्म मेरे द्वारा पूर्व जन्मों में हुए हैं उसका भोग भोगना भी मेरे लिए संभव नहीं था, इसलिए प्रभु ने कृपा करके उसे कई गुना कम करके मेरे भोगने लायक बनाया है) । भोगने की शक्ति भी प्रभु ही प्रदान करते हैं । उदाहरण स्वरूप जवान बेटा मरने पर पहले दिन घर में कोहराम मचता है पर बारहवें दिन तक सभी घटना से तालमेल बैठा लेते हैं । कहते हैं ''बिता हुआ समय मरहम का काम करता है'' । यह समयरूपी मरहम और प्रतिकूलता भोगने की शक्ति भी प्रभु की ही देन है, प्रभु की ही अनुकम्पा है ।
ऐसे ही अनुकूलता के वक्त भी हमारी पवित्र सोच यही होनी चाहिए कि मेरे प्रभु ने मेरे संचित अच्छे कर्मों का फल कई गुना बढ़ाकर मुझे भोगने हेतु दिया है । इसमें भी प्रभु कृपा के दर्शन अनिवार्य रूप से करने की आदत डालनी चाहिए अन्यथा यह अहंकार पनपते देर नहीं लगेगा कि यह मेरे पूर्व संचित शुभकर्मों के कारण मेरा स्वअर्जित भाग्य है ।
भक्तों के दृष्टिकोण में प्रभु के दो करुणायुक्त सिद्धांत हैं - जीव के पुण्यकर्मों का फल कई गुना बढ़ा देना और जीव के पापकर्मों का फल कई गुना कम कर देना । अगर ऐसा नहीं होता तो आज हम जिस भी अवस्था में हैं ऐसी अवस्था में नहीं होते (यानी अगर परिस्थिति हमारे अनुकूल है तो हमारे संचित पुण्यकर्मों के बल पर इतनी अनुकूल नहीं हो सकती थी और अगर परिस्थिति हमारे प्रतिकूल है तो हमारे संचित पापकर्मों के बल पर इससे बहुत अधिक प्रतिकूल हो सकती थी) । दोनों ही अवस्था में प्रभु कृपा के कारण ही आज हम जैसे भी हैं वैसे हैं । इसलिए हर पल, हर स्थिति में प्रभु कृपा के दर्शन करने की आदत जीवन में डालनी चाहिए ।