श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : अन्‍त समय प्रभु के स्‍मरण से हमें पुनः जन्‍म-मृत्यु के चक्‍कर में नहीं पड़ना पड़ता । पर ऐसा हो सके इसका अभ्‍यास जीवन के आरम्‍भ से ही करना पड़ता है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



जैसे सुबह 4 बजे उठने की आदत अगर हम डालते हैं तो हमारी नींद रोजाना सुबह 4 बजे स्वतः ही खुल जाती है । आदत बड़ी पक्‍की चीज है, जिसकी भी आदत डालते हैं वह होता ही है । वैसे ही प्रभु स्‍मरण की आदत हम जीवन भर डालते हैं तो अन्‍त समय में प्रभु स्‍मरण स्वतः ही होगा । उसके लिए कोई विशेष प्रयास करने की जरूरत नहीं होगी ।


अन्‍त समय प्रभु का स्‍मरण होते ही आवागमन से सदैव के लिए मुक्ति मिल जाती है । हम प्रभु के पास पहुँच जाते हैं जहाँ से फिर जन्‍म-मृत्यु के चक्‍कर में नहीं पड़ना पड़ता ।


कितना सरल उपाय है जन्‍म-मृत्यु के बंधन से सदैव के लिए छूटने का जिसे हम प्रायः नजरअंदाज कर देते हैं । कितना सरल उपाय है कि अगर हम जीवन भर प्रभु स्‍मरण का अभ्‍यास करते हैं तो अन्‍त समय प्रभु का स्‍मरण होगा और हम आवागमन से मुक्‍त हो जाएंगे । इसके विपरीत अगर इसका जीवन में प्रयास नहीं किया गया तो अन्‍त समय कितना भी परिजन प्रभु नाम का उच्‍चारण हमारे कानों में करें, कितने भी भजन, जप अंतिम समय हमारे परिजन करें पर हमें अंतिम घड़ी प्रभु का स्‍मरण नहीं हो पाएगा ।


अगर जीवन में प्रभु स्‍मरण का दैनिक अभ्‍यास किया गया हो तो ही अंतिम समय प्रभु का स्‍मरण बिना बाधा के स्वतः ही हो जाता है । अन्‍यथा कितने उदाहरण ऐसे मिलेंगे जब प्रभु नाम का उच्‍चारण, प्रभु का स्‍मरण करवाने का परिजन भरसक प्रयास करते हैं पर अंतिम समय ऐसा नहीं हो पाता है ।


इसलिए जीवन में निरंतर प्रभु स्‍मरण की आदत बनानी चाहिए जिससे हमारा अन्‍त समय सुधर जाए और मानव जीवन के उद्देश्य की पूर्ति भी हो जाए । मानव जीवन का उद्देश्य क्‍या है - "जीव" का "शिव" से मिलन और सदैव के लिए जन्‍म-मृत्यु के चक्रव्यूह से मुक्ति । पर क्‍या हमारा प्रयास इस दिशा में हो रहा है ?


हमारी वासना जिसमें फंसी होगी अन्‍त समय में हमें उसी का स्‍मरण होगा । जिसका स्‍मरण होगा वैसी ही गति होगी । श्रीमद् भागवतजी महापुराण में जड़भरतजी का प्रसंग इसका जीवन्त उदाहरण है । जड़भरतजी ने एक बार एक हिरण के बच्‍चे की जान बचाई और फिर उसके मोह में फंस गए । दिन रात उनका अनुसंधान उस मृग के बच्‍चे का होता । उनका अन्‍त समय आया और उनका चिंतन मृग के बच्‍चे का ही हुआ और उन्‍हें अगला जन्‍म उसी योनि में लेना पड़ा । वे इतने ज्ञानी थे, संत थे और मुक्‍त हो सकते थे पर अंतिम समय गलत स्‍मरण के कारण बंधन में आ गए ।


यह कथा हमें क्‍या शिक्षा देती है ? शिक्षा यह है कि अंतिम समय गलत चीज का स्‍मरण हमारा पतन करवा देता है । अंतिम समय स्‍मरण सिर्फ और सिर्फ प्रभु का ही होना चाहिए । पर यह एकाएक नहीं होगा । इसके लिए जीवन में प्रयास करने होंगे तभी अंतिम समय ऐसा संभव होगा ।


आम तौर पर मनुष्‍य की वासना धन-सम्पत्ति, बेटे-पोतों इत्‍यादि में फंसी होती है और अन्‍त समय में वह इनका ही स्‍मरण करके अपना जीवन व्‍यर्थ कर लेता है । संत कहते हैं कि अंतिम समय अगर धन-सम्पत्ति का स्‍मरण होता है तो अगली योनि सर्प की मिलती है जहाँ उसे गड़े हुए धन की रक्षा करनी पड़ती है । उसका चिन्‍तन धन-सम्पत्ति का था इसलिए अगली योनि धन-सम्पत्ति की रक्षा हेतु मिली ।


कितनों का दुर्भाग्य होता है कि अन्‍त समय बीमारी ने उन्‍हें घेर रखा होता है और उसकी पीड़ा में ही उनका ध्‍यान अटका रहता है । इस कारण अन्‍त समय प्रभु स्‍मरण नहीं हो पाता ।


इसलिए प्रभु के स्‍मरण की आदत अगर जीवन के आरम्‍भ से हमने बनाई हो तो अन्‍त समय प्रभु का स्‍मरण बिना किसी बाधा के हो जाएगा । फिर चाहे बीमारी की पीड़ा हो या न हो, प्रभु का स्‍मरण निश्‍चित ही हो जाएगा ।


अन्‍त समय में प्रभु स्‍मरण हुआ तो हमारा कल्‍याण निश्‍चित है । हमें फिर किसी योनि में भटकना नहीं पड़ेगा और सीधे प्रभु के पास पहुँच जाएंगे ।


इसलिए जीवन में निरंतर प्रभु स्‍मरण की आदत बनानी चाहिए । यह सबसे आवश्‍यक और जरूरी साधन है । जीवन भर प्रभु का स्‍मरण हर पल, हर लम्‍हें रहना चाहिए । इससे हमारा अन्‍त सुधर जाएगा, हमारी गति सुधर जाएगी ।