लेख सार : मानव जीवन के सही उपयोग पर ध्यान केंद्रित कराने वाला लेख जो की दो जीवन शैलियों के बीच तुलना कर बताता है कि हमें क्या करना चाहिए जिससे हमारा मानव जीवन सफल हो । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
दो आत्माओं को मानव शरीर मिला । पहली आत्मा ने मानव शरीर पाकर खूब रुपया पैसा कमाया, विदेश यात्राएँ की, ऐशो आराम किया । थोड़ा धर्म पुण्य भी किया, साधारण पूजा पाठ भी की, परिवार फुला फला, सभी अनुकूलता रही । बुढ़ापा आया तो बुढ़ापे का कष्ट झेलना पड़ा, कुछ चीजें प्रतिकूल होने लगी । शरीर ने साथ छोड़ा, रोग लग गए । पत्नी जीवन काल में साथ छोड़ गई, बच्चे अपनी मनमर्जी करने लगे । अन्त समय प्राण कंठ में आए, शरीर छूटा और एक नई यात्रा प्रारम्भ हुई ।
जो दान पुण्य किया था, पूजा पाठ की थी उसका सुख भोगने के लिए स्वर्ग मिला । फिर वहाँ का भोग पूरा होने पर नर्क की यात्रा हुई और यातना शरीर मिला । अशुद्धि से धन कमाने के लिए जो पातक और अनीति की थी, प्रतिस्पर्धा के कारण जो प्रतिकूल कर्म किए थे उसके लिए नर्क के भोग भोगने पड़े । नर्क में यातना शरीर से यातनाएं भोग कर फिर शुद्ध हुई आत्मा को दोबारा जन्म मिला ।
अपने पूर्व कर्मों के अनुसार यह जन्म नभचर, जलचर, थलचर या वनस्पति योनियों में किसी भी योनी में मिल सकता है । उदाहरण के लिए माने कि पशु योनि में जन्म मिला । पशु बने तो फिर भय, भोजन और मैथुन के चक्कर में पड़ गए । बचपन में बड़े पशु मार न डाले उसका भय, बड़े होने पर भोजन की चिन्ता और फिर मैथुन के द्वारा परिवार का दायित्व । ऐसे ही एक योनि में नहीं लाखों योनियों में जन्म मरण का यह चक्र चलता रहा । जन्म-मृत्यु, स्वर्ग-नर्क भोगने का क्रम चलता रहा ।
दूसरी आत्मा जिसको मानव शरीर मिला था उसने अपने सांसारिक कर्मों का निर्वाह तो किया पर उसमें विशेष रुचि नहीं ली । क्योंकि उसकी रुचि सिर्फ और सिर्फ प्रभु में थी । जो सांसारिक कर्म किया वह प्रभु को निमित्त मानकर और प्रभु को अपर्ण करके किया । प्रभु की खूब सेवा, पूजा और भजन किया । आवश्यकता अनुसार रुपया पैसा कमाया पर सबसे बड़ा संतोष धन कमाया । बच्चें बड़े अनुकूल थे, गृहस्थ का सुख था क्योंकि पूरा गृहस्थ ही प्रभु शरण में रहता था । बुढ़ापा आया तो कोई विशेष व्याधि नहीं हुई । किसी की सेवा नहीं लेनी पड़ी और हंसते हंसते शरीर छूट गया । खूब भजन-पूजन और भक्ति जीवन पर्यन्त हुआ था इसलिए प्रभु स्मरण की जीवनभर की आदत थी । अन्त समय भी प्रभु स्मरण बना हुआ था इसलिए अन्त समय प्रभु का सानिध्य मिला और आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई । फिर कोई जन्म-मरण का चक्कर नहीं हुआ, कोई स्वर्ग-नर्क का भोग नहीं । सीधा प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान मिल गया । लाखों बार के जन्म-मरण के चक्कर से छूट गए, लाखों बार के स्वर्ग-नर्क के चक्कर से छूट गए । मानव जीवन के सच्चे उद्देश्य की पूर्ति हो गई क्योंकि मानव जीवन मिला ही प्रभु की प्राप्ति हेतु था ।
दोनों आत्माओं ने मानव जीवन का उपयोग किया पर दोनों आत्माओं में कौन विजयी रहा । जिसने प्रभु को पा लिया वह विजयी रहा । जीवन में धन, संपत्ति, ऐश्वर्य और कीर्ति कमाई पर प्रभु को नहीं पा सके तो वह जीव हार गया । दूसरी तरफ जिसने धन, संपत्ति, ऐश्वर्य और कीर्ति नहीं कमाई पर जिसने सिर्फ और सिर्फ प्रभु की भक्ति की कमाई की वह जीव जीत गया ।
हम कौन-सी गति चाहते हैं यह हमारे ऊपर है । लाखों योनियों के चक्कर में फंसे रहना चाहते हैं या सदैव के लिए आवागमन से मुक्त होना चाहते हैं, यह हमारे ऊपर है । स्वर्ग-नर्क का सुख-दुःख भोगते रहना चाहते हैं या प्रभु सानिध्य में सदैव के लिए परमानंद का आनंद चाहते हैं, यह हमारे ऊपर है ।
इसलिए जीवन की दिशा हमें ऐसी रखनी चाहिए कि मानव जीवन में हमें प्रभु की प्राप्ति हो जाए । यही मानव जीवन का सफलतम उपयोग है । मानव जीवन इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें मिला है । जीवन का दृष्टिकोण अगर हम ऐसा बना लेते हैं कि हमें प्रभु की प्राप्ति करनी है तो हम उसके लिए सही साधन करते चलेंगे । अन्यथा यह जीवन व्यर्थ ही बर्बाद हो जाएगा और फिर जन्म-मरण, स्वर्ग-नर्क के चक्करों में हमें फंसना पड़ेगा ।
इसलिए भक्ति के द्वारा प्रभु की प्राप्ति का उद्देश्य जीवन में बनाना चाहिए और इसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए ताकि मानव जीवन का सही उपयोग किया जा सके ।