लेख सार : सभी इन्द्रियों को प्रभु की तरफ ले जाने पर वे शुद्ध होती हैं और हमारा कल्याण करती हैं । जीवन जीने की सबसे अच्छी कला है कि सभी इन्द्रियों को प्रभु की तरफ मोड़ना और प्रभु सानिध्य में रहना । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
जैसे एक गंगाजल रखने का पात्र हमेशा शुद्ध रहता है वैसे ही सच्चे रूप से प्रभु की सेवा से जुड़ने वाली हर चीज शुद्ध रहती है । जैसे हमारे हाथ (नित्य प्रभु सेवा करने से शुद्ध रहते हैं), हमारी आँखें (नित्य प्रभु दर्शन करने से शुद्ध रहती हैं), हमारा मन (नित्य प्रभु ध्यान करने पर शुद्ध रहता है), हमारे कान (नित्य प्रभु कथा श्रवण, भजन-कीर्तन सुनने पर शुद्ध रहते हैं), हमारी वाणी (नित्य प्रभु गुणगान करने पर शुद्ध रहती है) । यह शाश्वत सिद्धांत है ।
शुद्धिकरण का इससे सरल और सुलभ उपाय दूसरा है ही नहीं । दूसरे उपायों की बात तो हम तब करें जब कोई दूसरा विकल्प हो । शुद्धिकरण का अन्य कोई विकल्प है ही नहीं । किसी भी अन्य साधन से हाथों का, आँखों का, मन का, कानों का, वाणी का शुद्धिकरण संभव ही नहीं ।
फिर प्रभु की अनुकम्पा देखें कि शुद्धिकरण के ऐसे सरल और सुलभ विकल्प को सबकी पहुँच में बनाए रखा है । पांच दृष्टिकोणों से हम प्रभु की अनुकम्पा को देखें ।
पहला, यह शुद्धिकरण का विकल्प सबको समान रूप से उपलब्ध है, चाहे वह राजा हो, गरीब हो, विकलांग हो या कोढ़ी हो । कोई भी अपनी इन्द्रियों को प्रभु की तरफ मोड़कर उनका शुद्धिकरण कर सकता है । जाति, पद, धर्म, लिंग का कोई भेद नहीं । हर कोई समान रूप से इस शुद्धिकरण को पा सकता है ।
दूसरा, यह शुद्धिकरण का विकल्प हर समय समान रूप से उपलब्ध है, चाहे वह दिन हो, रात्रि हो, सायंकाल हो या प्रभात हो । कोई भी कभी भी अपनी इन्द्रियों को प्रभु की तरफ मोड़कर उनका शुद्धिकरण कर सकता है । जिसके पास जब समय हो उसे छूट है कि वह अपनी इन्द्रियों के शुद्धिकरण हेतु प्रयासरत हो जाए ।
तीसरा, यह शुद्धिकरण का विकल्प हर परिस्थिति में समान रूप से उपलब्ध है, चाहे वह सुख की बेला हो, दुःख की घड़ी हो या पीड़ा का समय हो । कोई भी, कभी भी, किसी भी अवस्था में अपनी इन्द्रियों को प्रभु की तरफ मोड़कर उनका शुद्धिकरण कर सकता है । हर परिस्थिति में वह ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है ।
चौथा, यह शुद्धिकरण का विकल्प हर जगह समान रूप से उपलब्ध है, चाहे वह घर के अंदर हो, घर के बाहर हो, पर्वत पर हो या रेगिस्तान में । कोई भी, किसी भी स्थान पर अपनी इन्द्रियों को प्रभु की तरफ मोड़कर उनका शुद्धिकरण कर सकता है । इसके लिए स्थान का कोई बंधन नहीं कि ऐसा मंदिर या तीर्थ में ही संभव है । हम श्मशान में भी बैठे ऐसा कर सकते हैं ।
पांचवा, यह शुद्धिकरण का विकल्प हर युग में समान रूप से उपलब्ध है चाहे वह सतयुग हो, त्रेतायुग हो, द्वापरयुग हो या फिर कलियुग हो । हम किसी भी युग में अपनी इन्द्रियों को प्रभु की तरफ मोड़कर उसका शुद्धिकरण कर सकते हैं । इसके लिए सतयुग उपयुक्त है एवं कलियुग उपयुक्त नहीं, ऐसा नहीं है । हर युग में एक जैसा फल है ।
प्रभु की इन पांच अनुकम्पाओं को देखने के बाद जीव को क्या करना चाहिए यानी उससे क्या अपेक्षा है यह देखें । जीव को मात्र इतना सा करना है कि प्रभु सानिध्य में रहना है और अपने शरीर के प्रत्येक अंगों को (सबसे जरूरी है मन को) यानी अपनी सभी इन्द्रियों को प्रभु सानिध्य में रखने का प्रयास शुरू करना है ।
आँखों का काम है देखना । आँखों को बंद करके नहीं रख सकते । आँखों को बंद करने से वह प्रतिकार करेगी । उसे देखने की छूट होनी चाहिए । उसे प्रभु को देखने में लगाना चाहिए । ऐसा करने पर धीरे-धीरे उसे प्रभु को देखने की कला और प्रभु को देखने का आकर्षण आ जाएगा । नेत्र प्रभु को देखने का समय बढ़ाते जाएंगे और वे पवित्र होते चले जाएंगे । ऐसा होने पर दूसरी गलत चीज देखने की आँखों की चाहत ही खत्म हो जाएगी । आँखों को प्रभु में लगाने का एक जीवन्त उदाहरण श्रीगोपीजन का है । श्रीगोपीजन प्रभु को गऊचारण के लिए जाते और आते वक्त निहारती थी एवं अपने पलकों को दोष देती थी, पलकें बनाने वाले को दोष देती थी कि पलकों के कारण प्रभु का क्षणभर का अदर्शन हो जाता था । श्रीगोपीजन चाहती थी कि आँखों में पलकें होनी ही नहीं चाहिए, हो तो उनका गिरना बंद हो जाना चाहिए । प्रभु के रूप में इतना रस आ गया कि पलकें ही उन्हें बाधा स्वरूप लगने लगी ।
ऐसे ही कानों को प्रभु की श्रीलीला सुनने में, भजन-कीर्तन सुनने के अभ्यास में लगाएंगे तो धीरे-धीरे संसार की व्यर्थ बातें सुनने की इच्छा कम होती चली जाएगी । श्रीमद् भागवतजी महापुराण में राजा पृथु की कथा आती है जिन्होंने प्रभु से 1000 कान मांगे कि वे प्रभु की श्रीलीला एवं श्रीकथाओं का नित्य श्रवण उन कानों से कर सकें । ज्यादा से ज्यादा प्रभु की कथा सुनने का रस राजा को आ गया इसलिए दो कानों से संतुष्ट न होकर उन्होंने एक हजार कान मांगे ।
वाणी अगर प्रभु के बारे में बोलने का, प्रभु के भजन-कीर्तन करने का, नाम जप करने का अभ्यास करेगी तो वह इतनी पवित्र हो जाएगी कि असत्य बोलना, कड़वा बोलना, कटु बोलना स्वतः ही बंद हो जाएगा । बहुत सारे संत हुए हैं जो सत्संग में प्रवचन किए बिना (यानी प्रभु के बारे में बोलकर अपनी वाणी को पवित्र किए बिना) नित्य भोजन ग्रहण नहीं करते थे । पहले प्रभु के बारे में प्रवचन फिर भोजन, ऐसा उनका दैनिक नियम था ।
ऐसे ही हाथों को प्रभु सेवा में, पैरों को प्रभु मंदिर, तीर्थ में जाने का अभ्यास करवा उन्हें पवित्र किया जा सकता है ।
शुद्धिकरण हेतु शर्त इतनी सी है कि बिना ढोंग, बिना दिखावे के अपनी सभी इन्द्रियों को प्रभु की तरफ मोड़ने का सच्चा प्रयास करना । जैसे श्रीगंगाजल रखने का पात्र श्रीगंगाजल रखने से सर्वदा शुद्ध रहता है (साधारण जल रखने पर नहीं रहेगा) वैसे ही सच्चा प्रयास करके प्रभु में लगाने पर ही इन्द्रियों और मन का शुद्धिकरण संभव है अन्यथा पूरा जीवन कुछ भी कर लें तो भी कुछ नहीं होगा ।
सभी इन्द्रियों को प्रभु से जोड़ने पर दो कार्य होते है - एक तो सत्कर्म होता है और दूसरा पातक कर्म से हम दूर रहते हैं । उदाहरण स्वरूप मन को प्रभु के ध्यान में लगाया तो मन व्यर्थ बातों के विचार से, संसार की व्यर्थ चीजों से हट जाएगा ।
एक शाश्वत सिद्धांत है कि नेत्र देखना बंद नहीं करेंगे । नेत्रों को दिखाएं, खूब दिखाएं पर प्रभु का आकर्षक रूप दिखाएं । नेत्रों को प्रभु के अति सुन्दर रूप में उलझा दें तो वह दूसरे रूप को देखने जाएंगे ही नहीं ।
इसलिए सभी इन्द्रियों को प्रभु में उलझा दें तो फिर वे अन्य किसी चीज की तरफ भागेंगी नहीं ।