लेख सार : भक्त के मन में सदैव यह भाव होना चाहिए कि प्रभु ने कृपा करके मेरी अनुकूलता बढ़ा दी और दया करके मेरी प्रतिकूलता घटा दी । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
एक गांव में वृक्ष के नीचे चार व्यक्ति प्रभु के बारे में चर्चा कर रहे थे । पास ही एक भक्त बैठा था जो उनकी चर्चा सुन रहा था । पहले व्यक्ति ने पूछा कि बताओ प्रभु की दया और कृपा जीवन में कितनी होती है । दूसरे व्यक्ति ने दो अंगुली दिखाकर कहा - इतनी । तीसरे व्यक्ति ने दो हाथ दिखाकर कहा - इतनी । चौथे व्यक्ति ने अपने हाथों को और लम्बा फैलाया और कहा - इतनी । भक्त सब देख रहा था । उससे अब रहा नहीं गया । वह उठकर आया और बोला की अंगुली और हाथ हटा लो फिर जहाँ से जहाँ तक तुम्हारी दृष्टि जाए या तुम्हारी कल्पना जाए, उतनी दया और कृपा प्रभु हर जीव पर करते है ।
यह हमारे जीवन का भी सत्य है पर हम इसे समझ नहीं पाते और प्रभु दया और कृपा को अपनी अनुकूलता और प्रतिकूलता के मापदण्ड पर आंकते हैं ।
जो हमारे अनुकूल हुआ उसे हम हमारा कर्मफल या भाग्य मानने की भूल कर लेते हैं । सत्य तो यह है कि वह मात्र और मात्र प्रभु की कृपा है जो हमें कर्मफल या भाग्य के रूप में मिला है । एक सिद्धांत है कि प्रभु भक्त को अनुकूलता का फल बढ़ा कर देते हैं । यानी भक्त ने जो भी संचित पुण्य कर्म किए हैं उसका बढ़ा हुआ फल प्रभु उसे प्रदान करते हैं । प्रभु जीव पर अपनी कृपा के कारण ही ऐसा करते हैं । इसलिए जो हमारे अनुकूल हुआ उसे भी प्रभु कृपा का फल ही मानना चाहिए ।
जो हमारे अनुकूल नहीं हुआ या आंशिक अनुकूल हुआ, उसे भी प्रभु कृपा का फल ही मानना चाहिए । ऐसा मानना चाहिए कि प्रभु कृपा के कारण ही जितना हो सका उतना आंशिक अनुकूल हुआ वरना यह प्रतिकूल भी हो सकता था ।
जो हमारे प्रतिकूल हुआ, वहाँ भी यही दृष्टिकोण रखना चाहिए कि यह प्रभु दया के कारण ही इतना हो कर रह गया अन्यथा इससे भी कहीं भयंकर रूप से यह प्रतिकूल हो सकता था । प्रभु दया न होती तो प्रतिकूलता निश्चित रूप से और भयंकर हो सकती थी । एक सिद्धांत है कि प्रभु भक्त को प्रतिकूलता का फल घटाकर देते हैं । यानी भक्त ने जो भी संचित पापकर्म किए हैं उसका घटा हुआ फल प्रभु उसे प्रदान करते हैं ।
भक्तों के लिए प्रभु का स्पष्ट सिद्धांत है कि प्रभु अनुकूलता का फल बढ़ा कर देते हैं और प्रतिकूलता का फल घटाकर देते हैं । अनुकूलता का फल देते वक्त प्रभु कृपा करके फल को बढ़ाते हैं और प्रतिकूलता का फल देते वक्त प्रभु दया करके फल को घटाते हैं । प्रभु की कृपा नहीं होती तो हमारी जितनी अनुकूलता है उतनी अनुकूलता नहीं रहती और प्रभु की दया न होती तो हमारी जितनी प्रतिकूलता है उससे बहुत ज्यादा प्रतिकूलता जीवन में होती ।
इसलिए जो अंगुली और हाथ हम प्रभु की कृपा और दया को मापने के लिए उठाते हैं उसे उठाने की कभी भूल नहीं करनी चाहिए । क्योंकि ऊपर से नीचे तक, दाएं से बाएं तक, आगे से पीछे तक जो भी है वह प्रभु की कृपा और दया के फलस्वरूप ही तो है ।
हमें ऐसा दृष्टिकोण अपने जीवन में बनाना चाहिए कि हमें प्रभु की दया और कृपा का साक्षात दर्शन जीवन में होने लगे । हर अवसर में, हर क्रिया में प्रभु की कृपा और दया के दर्शन होना ही भक्ति का सूत्र है ।
भक्ति की विशेषता है कि हर अनुकूलता में प्रभु की कृपा और हर प्रतिकूलता में प्रभु की दया के दर्शन करवाती है । सबसे जीवन्त उदाहरण भक्त श्री सुदामाजी का है । उनके जीवन में इतनी प्रतिकूलता थी जिसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते और फिर जीवन में प्रभु कृपा से इतनी अनुकूलता आई जिसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते ।
भक्त श्री सुदामाजी के जीवन की प्रतिकूलता देखें । खाने को दो समय की रोटी नहीं । कभी-कभी तो 2-3 दिनों तक कोई चढ़ावा नहीं आता और पति-पत्नी और बच्चे पानी पीकर ही गुजारा करते । पहनने को कपड़े इतनी जगह से फटे हुए कि गिना भी नहीं जा सकता । ठंड की रात में ओढ़ने को कुछ नहीं और पूरी रात श्री सुदामाजी प्रभु के नाम का कीर्तन करते बिता देते क्योंकि ठंड के कारण नींद नहीं आती । घर पर छत नहीं, तूफान, वर्षा और धूप आती तो सपरिवार वे उसे सहते । ऐसा कहा गया है कि श्री सुदामाजी का पेट और पीठ जुड़ी हुई सी थी यानी पेट भूखे रहने के कारण इतना पिचका हुआ था कि पीठ से मिल चुका था, ऐसा प्रतीत होता था । इतनी प्रतिकूलता में भी वे प्रभु की दया के स्पष्ट दर्शन नित्य करते थे । हम उनकी कथा सुनकर भी प्रभु दया के दर्शन नहीं कर पाते क्योंकि उनकी लाचारी, गरीबी ही सुनकर रह जाते हैं ।
फिर जब प्रभु कृपा से उनके जीवन में अनुकूलता आई तो वह भी इतनी विलक्षण की देवराज श्री इन्द्रजी भी ईर्ष्या करने लगे ऐसी अनुकूलता को देखकर । प्रभु ने ऐसी कृपा करी कि श्री द्वारिकापुरी से भी विलक्षण सुदामापुरी बसा दी । जब भक्त श्री सुदामाजी प्रभु से मिलकर वापस अपने ग्राम पहुँचे तो वे पहचान ही नहीं पाए और वापस मुड़ने लगे तो उनकी पत्नी भगवती सुशीलाजी ने उन्हें आवाज लगाई । भगवती सुशीलाजी जिन्होंने कभी जीवन में नई साड़ी पहनी ही नहीं थी, हमेशा किसी की दी हुई पुरानी साड़ी पहनती थी वह भी जगह-जगह से फटी होती थी, जिन्होंने जीवन में कभी अलंकार देखें भी नहीं थे (पहनने तो बहुत दूर की बात), उन्हें रेशमी साड़ी और स्वर्ण अलंकारों से लदी हुई देखकर श्री सुदामाजी अचंभित रह गए । सुदामापुरी में इतना वैभव था जिसका वर्णन भी नहीं किया जा सकता । ऐसी विलक्षण अनुकूलता में भी श्री सुदामाजी ने सिर्फ प्रभु की कृपा के दर्शन किए । यह प्रभु की महती कृपा ही तो थी कि ऐसे विलक्षण वैभव को देखकर भी श्री सुदामाजी विचलित नहीं हुए जिसे देखकर कोई भी बावला हो जाता । उन्होंने अपनी भक्ति को दृढ़ता से कायम रखा और माया से प्रभावित नहीं हुए ।
प्रभु की दया और कृपा दोनों असीम होती है । उनका कोई अन्त नहीं होता । इसलिए हमें कभी भी प्रभु की कृपा और दया को मापने का दुस्साहस नहीं करना चाहिए । जीवन में जो अनुकूलता है उसे प्रभु की महती कृपा और जीवन में जो प्रतिकूलता है उसमें प्रभु की महती दया के दर्शन करने चाहिए । हमारे मन का सदैव यह भाव होना चाहिए कि प्रभु ने कृपा करके मेरी अनुकूलता बढ़ा दी और दया करके मेरी प्रतिकूलता घटा दी ।