श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : सर्वशक्तिमान परमेश्वर की ओर ले जाने वाली राह के साथ माया के मार्ग की तुलना में केंद्रित लेख है । लेख बताता है कि हमें प्रथम उपलब्ध मौके पर माया के मार्ग को त्यागकर प्रभु की तरफ ले जाने वाले मार्ग को पकड़ना चाहिए । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



बड़े शहरों को जोड़ने वाले हाईवे में दो सड़कें होती हैं । एक आने की और एक जाने की । आमने सामने की दिशा से आने जाने वाले वाहन अपने मार्ग पर चलते हैं । बीच में हर 15 - 20 किलोमीटर पर हाईवे की दोनों सड़कों के बीच एक कट आता है जहाँ से आप अपने वाहन को मोड़कर दिशा बदल सकते हैं ।


ऐसे ही मानव जीवन में भी दो दिशाएँ हैं । एक माया की दिशा और दूसरी प्रभु की दिशा । दोनों दिशाएँ एक दूसरे से विपरीत है (जैसे हाईवे पर आने जाने वाली दिशाएँ एक दूसरे के विपरीत होती हैं, यानी एक दिशा से वाहन आते हैं और उससे उलटी दिशा में वाहन जाते हैं) ।


माया की दिशा चकाचौंध वाली है, जगमगाती है जैसे बड़े शहर आने पर हाईवे रोशनी से जगमगा उठता है । माया की दिशा सभी के लिए बड़ी सुलभ और माया की राह सबके लिए बड़ी आसान और आरामदायक है । आकर्षित करने हेतु तीनों गुण यानी जगमगाहट, सुलभता और आरामदायक हमें माया के मार्ग में फंसाने हेतु मौजूद रहते हैं । पर इस माया के मार्ग पर चलते रहने से मार्ग की समाप्ति पर हम जिस मुकाम पर पहुँचते हैं वह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण, भयानक और कष्टदायक होता है ।


प्रभु के मार्ग में आकर्षित करने हेतु कोई चकाचौंध नहीं है और मार्ग भी सुलभ नहीं, कठिन है । पर मार्ग की समाप्ति पर भगवत सानिध्य, भगवत प्रेम और परमानंद (आनंद की परम पराकाष्ठा) है ।


माया के मार्ग में सुख मिल सकता है पर इस मार्ग में आनंद है ही नहीं पर प्रभु के मार्ग से पहुँचने पर आनंद और परमानंद के अतिरिक्त वहाँ कुछ भी नहीं ।


हर मनुष्य के जीवनकाल में दो-तीन बार मार्ग बदलने का मौका जरूर आता है, ठीक वैसे ही जैसे हाईवे पर चल रहे वाहन को दिशा बदलने हेतु दोनों सड़कों के बीच कट आता है । यह मार्ग बदलने के मौकों को प्रस्तुत करने हेतु जीवन में कोई ऐसा वाकया या ऐसी घटना घटती है जैसे कोई व्यक्तिगत हानि, शारीरिक कष्ट, व्यापारिक नुकसान इत्यादि जिससे की मायारूपी जीवन में लिप्त उस मनुष्य का मायारूपी जीवन से क्षणभर के लिए मोहभंग होता है और वह प्रभु कृपा से प्रभु की तरफ आकर्षित होता है । कभी अपनों से वियोग, कभी अपनों द्वारा अपमान इत्यादि कई परिस्थितियां प्रभु प्रेरणा से उसके जीवन में उपस्थित होतीं हैं जो उसका माया से मोहभंग करातीं हैं । पर यह मोहभंग क्षणभंगुर होता है ।


पर प्रभु ने मनुष्य को बुद्धि दी है, इस कारण मनुष्य से अपेक्षा होती है कि ऐसे मौकों को हाईवे के सड़क कट की तरह समझे और अपनी जीवनरूपी गाड़ी को घुमाकर "माया के मार्ग" से "प्रभु मार्ग" की तरफ मोड़ दे । जीवन में ऐसे मौकों को कभी भी चूकना नहीं चाहिए ।


जैसे हाईवे पर चल रही एक गाड़ी जिसमें ईंधन बहुत कम बचा हो और ईंधन भरने का पम्प उलटी दिशा में नजर आ रहा है, ऐसे में अगर गाड़ीवाला हाईवे के सड़क कट पर गाड़ी मोड़ना भूल जाए तो अगला सड़क कट उसे नसीब नहीं होगा (क्योंकि वह 15 - 20 किलोमीटर आगे है, तब तक गाड़ी का तेल खत्म होकर गाड़ी रुक जाएगी) । ऐसे ही एक मानव जिसकी जीवनलीला कब खत्म हो जाए इसका उसे पता नहीं, अगर वह "प्रभु मार्ग" में मुड़ने का मौका चूक गया तो अगला मौका उसे जीवन में कब नसीब होगा यह पता नहीं और तब तक उसके जीवन की गाड़ी रुक जाएगी (यानी शरीर शांत हो जाएगा) । राजा श्री परीक्षितजी श्राप मिलने के पश्चात सात दिवस के लिए निश्चिंत थे क्योंकि उनकी मृत्यु सात दिन बाद निश्चित थी । हमारी मृत्यु भी निश्चित है पर कब निश्चित है, इसका हमें भान नहीं इसलिए हम अगले पल के लिए भी निश्चिंत नहीं हैं ।


इसलिए जैसे प्रथम उपलब्ध कट पर ही गाड़ी मोड़ लेना समझदारी है, वैसे ही पहले उपलब्ध मौके पर "माया मार्ग" त्यागकर "प्रभु मार्ग" की तरफ मुड़ना सबसे बड़ी समझदारी है । इस मनुष्य जीवन में जीवन की दिशा बदलने की सबसे बड़ी समझदारी भी प्रभु कृपा के कारण ही माननी चाहिए (यानी मेरे ऊपर मेरे प्रभु ने कृपादृष्टि डाली और मार्ग बदलने का अवसर मेरे जीवन में उपस्थित हुआ) । मेरे प्रभु की पहली कृपा माननी चाहिए कि प्रभु मार्ग पर चलने का अवसर हमारे जीवन में आया । मेरे प्रभु की दूसरी कृपा माननी चाहिए कि उस अवसर को हमारी बुद्धि ने प्रभु प्रेरणा से खोया या गंवाया नहीं ।


मायारूपी भंवर में फंसे मनुष्य को प्रभु से सदा सच्ची प्रार्थना करते रहना चाहिए कि यह दोनों प्रभु कृपा उसके जीवन में भी हों ।