श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : जीवन में प्रभु कृपा अर्जित करने का प्रयत्‍न सदैव करना चाहिए । इससे हमारे भीतर के सद्गुण पनपते हैं और हमारे भीतर के अवगुण शांत रहते हैं । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



अगर हम जीवन में प्रभु कृपा अर्जित कर पाने में सफल नहीं हुए तो हमारे भीतर के अवगुण ही हमें वेदना, कष्‍ट और दुःख पहुँचाने के लिए पर्याप्त हैं ।


प्रभु भक्ति, प्रभु प्रेम से अर्जित प्रभु कृपा से ही यह अवगुण हमारे भीतर शांत रहते हैं अन्‍यथा यह उत्‍पात मचाए बिना नहीं चूकते । सभी व्यक्तियों के भीतर सद्गुण एवं अवगुण दोनों का ही वास होता है । प्रभु कृपा है तो सद्गुण चमकेंगे और अवगुण शांत रहेंगे । प्रभु कृपा नहीं है तो अवगुण उत्‍पात मचाएंगे और सद्गुण क्षीण पड़ जाएंगे ।


जीवन में प्रभु कृपा अर्जित नहीं की हो तो अवगुण कैसे उत्‍पात मचाते हैं इसका एक उदाहरण देखें । उदाहरण स्‍वरूप पड़ोसी ने एक 25 लाख की नई चमचमाती गाड़ी खरीदी और हमारे भीतर उसका प्रभाव प्रारंभ हो गया । हमारे पास भी 2 लाख की गाड़ी है जिससे हमारी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो रही थी । पर हमारे भीतर अब उस पड़ोसी के प्रति ईर्ष्या और जलन ने जन्‍म लिया और उससे भी बढ़िया गाड़ी लाने की कामना हमारे मन में जन्‍म लेगी । फिर हम येन केन प्रकारेण से साम-दाम-दंड-भेद की रणनीति अपना कर अनीति से धन अर्जन करके इस इच्‍छा को पूरी करने का प्रयास करेंगे । अगर गाड़ी लेने की इच्‍छा पूरी हुई तो भी अन्‍त में दुःख निश्‍चित है क्‍योंकि हमने नैतिक पतन जो कर लिया । रोग, शोक, पतन सभी अनीति की परछाई हैं और जहाँ अनीति होती है यह जरूर पहुँचते हैं । अगर गाड़ी लेने की इच्‍छा पूरी नहीं हुई तो भी इच्‍छापूर्ति न होने का दुःख हमें सदैव सताता रहेगा ।


हमारे भीतर के अवगुण का प्रभाव देखें कि बैठे बिठाए पड़ोसी की नई गाड़ी के कारण दुःख आ गया । दुःख किसी ने दिया नहीं बल्कि हमारे भीतर का अवगुण ही दुःख का कारण बना ।


यह तो ठीक वैसे ही है जैसे एक व्‍यक्ति तेज गति से गाड़ी चलाता हुआ हाइवे पर हमसे आगे निकल गया । हमने अपने आप चुनौती ले ली । हम सावधानी पूर्वक 60-70 किलोमीटर की रफ्तार में गाड़ी चला रहे थे पर अब चुनौती के कारण हमने अपनी गाड़ी की गति बढ़ाई और 100-110 किलोमीटर कर ली । हमारा मकसद अब उस दूसरी गाड़ी से आगे निकलने का हो गया । सावधानी हटी और दुर्घटना घटी । बिना कारण तेज गति से चलाने पर हमारी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्‍त हुई । हम सावधानी से 60-70 किलोमीटर की रफ्तार में गाड़ी चला रहे थे कि एकाएक अवगुण के प्रभाव के कारण हमने गाड़ी की गति बढ़ाई और दुर्घटनाग्रस्‍त हो गए । हमें किसी ने गति बढ़ाने हेतु निर्देश नहीं दिए पर अवगुण के कारण स्वतः ली हुई चुनौती के कारण हमने ऐसा किया ।


ऐसे ही हम जीवन में संतोष धन को छोड़कर अनीति का रास्‍ता पकड़ लोभ धन की तरफ बढ़ते हैं और अपना विनाश करवा बैठते हैं ।


अब देखें प्रभु कृपा इस प्रसंग में कैसे काम करती है । प्रभु कृपा जीव पर रहती है तो वह तेज गति से आगे निकली गाड़ी को देखकर प्रभावित नहीं होता और अपनी गति और सावधानी बरकरार रखता है । उसे लगता है कि या तो जवानी के जोश में या किसी कारण विशेष से वह गाड़ी मेरे से आगे निकली है । उसे कहीं पहुँचने की जल्‍दी होगी सो उसे वह सहजता से आगे जाने देता है । अगर उस तेज गति से आगे जाने वाली गाड़ी को कहीं दुर्घटनाग्रस्‍त हुए हम देखते हैं तो भी प्रभु के प्रति हमारे मन में कृतज्ञता का भाव आ जाता है कि प्रभु ने हमारी रक्षा की । चुनौती लेकर हम भी अगर गाड़ी तेज चलाते तो हमारी भी यही दशा होती ।


प्रभु कृपा जीव पर रहती है तो पड़ोसी की नई गाड़ी से उसका संतोष धन नहीं डोलेगा । उसके मन में भावना आएगी कि गाड़ी का काम तो एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान पहुँचाना मात्र है । फिर मेरी 2 लाख की गाड़ी और पड़ोसी की 25 लाख की गाड़ी में क्‍या फर्क है । दोनों पहुँचाने का वही काम करती है । पड़ोसी की 25 लाख की गाड़ी में सुख सुविधा बहुत है । पर हमारे मन में विचार आएगा कि सुख सुविधा के गुलाम बनना ठीक नहीं क्‍योंकि जीवन की अंतिम यात्रा (शवयात्रा) में लकड़ी या बांस की शैय्या पर ही जाना है जहाँ कोई सुख सुविधा नहीं होगी ।


प्रभु की जीव पर कृपा होती है तो वह दूसरे की उन्‍नति देखकर खुश होता है । उसका मन जलता नहीं । यह आत्‍म निरीक्षण करके देखें तो पता चलेगा कि हमारे जीवन में हमने कितनी प्रभु कृपा अर्जित की है ।


हमारे विपक्षी, पड़ोसी के धन-सम्‍पत्ति की बढ़ोत्री हो और हमारा मन खुश हो तो ही हमें मानना चाहिए कि हम प्रभु कृपा अर्जित करने में सफल रहे हैं । अगर हमारे मन में द्वेष, ईर्ष्या, चुनौती की भावना है तो हमें मानना चाहिए कि अभी जीवन में प्रभु कृपा हमें अर्जित करना बाकी बचा हुआ है ।


संतोष धन प्रभु की एक बहुत बड़ी कृपा है । सभी प्रकार के धन में संतोष धन को सबसे बड़ा माना गया है । संतोष धन जीवन में आने पर सकामता जीवन से चली जाती है । फिर हमारी प्रभु पूजा, प्रभु भक्ति और प्रभु सेवा भी निस्‍वार्थ भाव से होने लगती है । यह मानव जीवन की सच्‍ची ऊँचाई है कि हमें प्रभु से कुछ नहीं चाहिए, सिर्फ प्रभु से प्रभु ही चाहिए ।


संत श्री कबीरदासजी ने एक बड़ा विलक्षण दोहा लिखा है - "प्रभुता को सब कोई भजै प्रभु को भजै न कोय, कहैं कबीर प्रभु को भजै प्रभुता चेरी होय" ।


यहाँ यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि हम प्रभु को चाहेंगे तो भी प्रभुता (धन-ऐश्‍वर्य) तो मिलेगी ही, ऐसा इस दोहे का मर्म नहीं है । अगर हमारे जीवन में प्रभु भक्ति है तभी इस दोहे का सच्‍चा मतलब हमें समझ में आएगा । सिर्फ और सिर्फ प्रभु को चाहेंगे तो प्रभु हमें मिलेंगे और प्रभुता भी स्वतः मिलेगी । कौन-सी प्रभुता ? धन-ऐश्‍वर्य की नहीं (यह तो प्रभुता नहीं बल्कि प्रभु के दर की मिट्टी है) । जीवन यापन हेतु जितनी मिट्टी चाहिए वह तो मिलेगी ही पर चार विलक्षण प्रभुता मिलेगी - (1) सद्गुणों की प्रभुता (2) भक्ति की प्रभुता (3) परमानंद की प्रभुता और (4) मोक्ष की प्रभुता ।


इसलिए जीवन में प्रभु कृपा अर्जित करने का अवसर कभी नहीं चूकना चाहिए । जीवन में प्रभु कृपा पाने हेतु सदैव प्रयत्‍नशील रहना चाहिए क्‍योंकि प्रभु कृपा जीवन में होगी तभी जीवन सफल होगा ।