श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : भक्ति का सामर्थ्‍य इतना बड़ा है कि वह हमसे सत्कर्म कराती है, पापकर्म करने से रोकती है और पुराने पापकर्मों का सच्‍चा प्रायश्‍चित करने की प्रेरणा हमारे अंतःकरण में लाती है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



एक बार प्रभु दो भक्‍तों का हिसाब कर रहे थे । माता पास बैठी थी ।


पहले भक्‍त के हिस्‍से में एक सत्कर्म था । दूसरे भक्‍त के हिस्‍से में 10 अपराध थे ।


जब प्रभु पहले भक्‍त का हिसाब करने बैठे जिसका एक सत्कर्म था तो प्रभु ने 1 लिखा और फिर 0 (शून्य) आगे लिख दिया । वह 10 बन गया । माता ने पूछा यह कैसा हिसाब किया । प्रभु ने कहा कि 1 तो उसका सत्कर्म था ही । शून्य मैंने (प्रभु ने) मेरी तरफ से दे दिया । प्रभु ने कहा कि मैंने कुछ ज्‍यादा थोड़ी न दिया है बस एक शून्य ही तो दिया है । पर प्रभु का दिया वह शून्य एक सत्कर्म के आगे लगते ही उस सत्कर्म को दस गुना कर दिया । भक्‍तों पर प्रभु के शून्य की कृपा देखें कि एक का दस हो जाता है । यह पहला सिद्धांत है जो हमें ध्‍यान रखना चाहिए कि प्रभु भक्‍तों के सत्कर्म को बढ़ा कर फल देते हैं ।


दूसरा भक्‍त 10 अपराधों को लेकर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था । वह सोच रहा था कि मेरा क्‍या होगा । मेरे तो एक भी सत्कर्म नहीं हैं, उल्‍टे 10 अपराध हैं । प्रभु उसका हिसाब करने बैठे । प्रभु ने माता से कहा कि क्‍योंकि यह मेरा भक्‍त है इसलिए इसके 10 में से 1 अपराध को मैं हटा लेता हूँ । प्रभु ने 10 में से 1 हटा दिया । बचा शून्य यानी वह अपराध रहित हो गया । माता यह देखकर मुस्‍कराई । भक्‍तों पर प्रभु की दया देखें कि भक्‍त के अपराध शून्य हो जाते हैं । श्री रामचरितमानसजी की अमर चौपाई में इसका साक्षात प्रमाण है जब प्रभु सुन्‍दरकाण्‍डजी में श्री विभीषणजी के लिए कहते हैं - "सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं, जन्‍म कोटि अघ नासहिं तबहीं" । यह प्रभु का संकल्‍प है कि जब हम भक्तियुक्‍त होकर प्रभु की शरण में जाते हैं तो हमारे कोटि-कोटि अपराध प्रभु तत्‍काल क्षमा कर देते हैं । यह दूसरा सिद्धांत है जो हमें ध्‍यान रखना चाहिए कि प्रभु भक्‍तों के अपराध के फल का क्षय कर देते हैं ।


कितना सुन्‍दर हिसाब है प्रभु का अपने भक्‍तों के लिए । ऐसा क्‍यों ? भक्‍तों को विशेष दर्जा क्‍यों ?


जो भक्‍त सत्कर्म करता है उसे विशेष दर्जा इसलिए मिलता है क्‍योंकि वह अपने प्रत्‍येक कर्म प्रभु के लिए करता है और उसे प्रभु को अर्पित करके करता है । प्रभु के लिए किया सत्कर्म और प्रभु को अर्पण किया हुआ सत्कर्म उस सत्कर्म के प्रभाव को बढ़ा देता है ।


जिस भक्‍त से अपराध हुआ उसे भी विशेष दर्जा इसलिए मिलता है क्‍योंकि भक्ति जीवन में आ गई तो उससे अपराध होने बंद हो जाते हैं । सच्‍चे भक्‍त से नए अपराध होते ही नहीं (अगर हमसे अपराध/ पाप/ गलत कर्म नहीं हो रहे हो तभी मानना चाहिए कि हमारी भक्ति सच्‍ची भक्ति है) । नए अपराध होना बंद हो जाते हैं तो उस भक्‍त के पुराने अपराध काटने में प्रभु देर नहीं लगाते । क्‍योंकि भक्ति के कारण वह भक्‍त उन अपराधों का सच्‍चा प्रायश्‍चित कर चुका होता है । नए अपराध नहीं करने का संकल्‍प और पुराने अपराध हेतु मन की गहराई से पश्चाताप, ऐसा होते ही प्रभु संचित पापों को क्षणभर में काट देते हैं । जिसके पाप नहीं कटे वह भक्‍त नहीं क्‍योंकि अगर वह भक्‍त है तो सच्‍चा प्रायश्चित होना अनिवार्य है और वह सच्‍चा पश्चाताप होते ही प्रभु उसे क्षमा करने में देर नहीं लगाते । नया अपराध का नहीं होना और पुराने अपराध का सच्‍चा प्रायश्‍चित होना, यह सच्‍ची भक्ति के लक्षण हैं । ऐसा होते ही पुराने अपराधों / पापों का क्षय होना निश्‍चित है क्‍योंकि प्रभु पुराने अपराधों / पापों को क्षण में माफ कर देते हैं ।


दोनों ही अवस्‍था में भक्‍तों को विशेष दर्जा मिलता है और ऐसा भक्ति के सामर्थ्‍य के कारण ही संभव है । भक्ति का सामर्थ्‍य इतना बड़ा है कि वह हमसे सत्कर्म कराती है, पापकर्म करने से रोकती है और पुराने पापकर्मों का सच्‍चा प्रायश्‍चित करने की प्रेरणा हमारे अंतःकरण में लाती है । यह तीन बातें करवाने का सामर्थ्‍य सिर्फ प्रभु की भक्ति में ही है ।


इसलिए भक्ति का स्‍थान सर्वोपरि है । अन्‍य किसी भी साधन में ऐसा करवाने का सामर्थ्‍य नहीं है । यही कारण है कि भक्ति की महिमा हर श्रीग्रंथ में गाई गई है और भक्ति को सर्वोच्च स्‍थान हर युग में दिया गया है । साधन के सभी मार्गों में भक्ति ही सर्वोच्च है ।


ऐसा इसलिए कि अन्‍य कोई साधन मार्ग चाहे वह कर्मयोग हो, ज्ञानयोग हो, ध्‍यानयोग हो, इनमें से किसी में भी यह तीन बातें एक साथ करवाने का सामर्थ्‍य नहीं है । सिर्फ भक्तियोग में ही सामर्थ्‍य है कि वह यह तीन बातें एक साथ करवाती है । पहला, भक्ति हमसे सत्कर्म करवाती है । हमें सत्कर्म हेतु प्रेरित करती है । जैसे ही हम भक्ति के द्वारा प्रभु से जुड़ते हैं, हमारे भीतर से सत्कर्म करने की प्रेरणा जागृत होती है । सत्कर्म हमें अच्‍छे लगने लगते हैं । दूसरा, भक्ति हमें पापकर्म करने से रोकती है । हमारे भीतर से पापकर्म नहीं करने की प्रेरणा जागृत होती है । हमें पापकर्म निंदनीय और नहीं करने योग्‍य लगने लगते हैं । हमें पापकर्म एक कोयले के जलते अंगारे की तरह लगते हैं जिसे पकड़ने से हमारा हाथ जल जाएगा - यह आभास सदैव बना रहता है और जैसे हम कोयले के जलते अंगारे को नहीं छूते वैसे ही हम पापकर्मों को नहीं छूते । तीसरा, भक्ति हमें पुराने पापकर्मों का सच्‍चा प्रायश्‍चित करवाती है । क्‍योंकि अब हमें पापकर्मों से घृणा हो चुकी होती है इसलिए जो पापकर्म जाने-अनजाने में हमसे हो चुके होते हैं, हृदय में उनके लिए सच्‍चा पश्चाताप होता है । सच्‍चे पश्चाताप के आंसुओं से प्रभु कृपा अर्जित होती है जो उस पापकर्म का क्षय कर देती है ।


इसलिए जीवन में अविलम्‍ब भक्ति का बीजारोपण करना चाहिए क्‍योंकि प्रभु का भक्‍तों का हिसाब करने का तरीका बड़ा निराला है । सत्कर्म के पुण्यों को बढ़ा देना और पापकर्म के फल का क्षय कर देना, यह भक्ति के अलावा कैसे भी संभव नहीं है ।