श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : भक्ति के कारण लघु रूप में हमारे समक्ष उपलब्‍ध होने पर भी हमें प्रभु की भव्‍यता, दिव्‍यता, विराटता और ऐश्‍वर्य को कभी भूलना नहीं चाहिए । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



प्रभु ने श्रीकुरुक्षेत्र के प्रांगण में श्री अर्जुनजी को अपना विश्‍वरूप दिखाया । उस विश्‍वरूप में श्री अर्जुनजी ने प्रभु के रोम-रोम में कोटि-कोटि ब्रह्माण्‍ड के दर्शन किए । श्रीमद् भगवद् गीताजी में हम सिर्फ इतना पढ़कर भूल जाते हैं । इस तथ्‍य की गहराई में उतर कर प्रभु के ऐश्‍वर्य का दर्शन नहीं करते ।


हमें इस तथ्‍य की गहराई में उतर कर प्रभु के ऐश्‍वर्य के दर्शन करने चाहिए । रोमावली के छिद्र कितने छोटे होते हैं । प्रभु की उन एक-एक रोमावली में एक नहीं कोटि-कोटि (यानी करोड़ों-करोड़ों) ब्रह्माण्‍ड समाए हुए हैं । जो ब्रह्माण्‍ड हम देखते हैं उसमें माता पृथ्वी के साथ सभी ग्रह, नक्षत्र, अनगिनत तारामंडल, श्रीसूर्यदेवजी, श्रीचन्‍द्रदेवजी समाए हुए हैं । ऐसे कोटि-कोटि ब्रह्माण्‍ड प्रभु की एक रोमावली में समाए हुए हैं । कितना विराट ऐश्‍वर्य का दर्शन है जहाँ तक हमारी कल्‍पना शक्ति भी नहीं जा सकती ।


प्रभु के ऐश्‍वर्य के आगे मानव कितना बौना, कितना लघु है - यह समझना चाहिए । हमने कुछ बड़ी इमारतों वाले शहर बसाए हैं पर प्रभु ने तो कोटि-कोटि ब्रह्माण्‍ड बसाए हैं । हमने कुछ वर्ग किलोमीटर में शहर बसाया है पर प्रभु ने तो कोटि-कोटि ब्रह्माण्‍ड अपनी एक रोमावली में बसाया है ।


प्रभु के विराट रूप में श्री अर्जुनजी ने इतने तरह के ग्रह देखें जिसकी आज तक हम खोज भी नहीं कर पाए । हमें पता भी नहीं वे कहाँ हैं, कितने हैं और कितने बड़े हैं ।


इतने ब्रह्माण्‍ड और उनमें समाए इतने ग्रह प्रभु की एक रोमावली में स्थित हैं, इस भाव का दर्शन करने पर हमें प्रभु के ऐश्‍वर्य के दर्शन हो जाते हैं । हमारी कल्‍पना शक्ति भी इतनी बड़ी नहीं कि वह प्रभु के ऐश्‍वर्य का किंचित भान भी हमें करवा सके । फिर भी जितनी हमारी कल्‍पना शक्ति है उस अनुरूप भी हम प्रभु के ऐश्‍वर्य को समझने का प्रयास करें तो भी वह ऐश्‍वर्य इतना विशाल है कि हम उसे देखकर अभिभूत हो उठते हैं ।


प्रभु के ऐश्‍वर्य को समझने पर हमें अपनी लघुता का स्‍पष्‍ट अनुभव होने लगता है । हमने विज्ञान के बल पर अपने आप को बहुत बड़ा, बहुत क्षमतावान मान लिया है । प्रभु का ऐश्‍वर्य समझते ही हमारी क्षमता का मिथ्‍या अहंकार तत्‍काल नष्‍ट हो जाता है । कितनी भी क्षमता हम आने वाले युगों-युगों में विकसित कर लें फिर भी हममें इतनी क्षमता नहीं होगी कि हम प्रभु के किंचित ऐश्‍वर्य को समझ पाए ।


प्रभु ने अपने विराट रूप के दर्शन हेतु विशेष चक्षु (नेत्र) श्री अर्जुनजी को प्रदान करे थे और अन्‍त में प्रभु ने कहा कि यह विराट रूप भी पूर्ण नहीं है क्‍योंकि प्रभु के वृहद विराट दिव्‍यरूप को कोई देख भी नहीं सकता और कोई समझ भी नहीं सकता ।


वृहद विराट दिव्‍यरूप को प्रभु ने दिखाया ही नहीं । प्रभु के उस लघु विराट रूप को देखकर भी श्री अर्जुनजी कांप उठे । उन्‍होंने प्रार्थना करी कि इस विशेष चक्षु से भी प्रभु के तेज और ऐश्‍वर्य को देखने में वे असमर्थता का अनुभव कर रहे हैं । उन्‍होंने अन्‍त में प्रभु से निवेदन किया कि वे उस कोमल और प्रिय रूप में लौटे जिसका वे सदैव दर्शन करते हैं ।


ऐसे ऐश्‍वर्यवान प्रभु की कृपा देखें कि सिर्फ एक भक्त की पुकार पर, एक शरणागत की पुकार पर वे विराट प्रभु हमारे बन जाते हैं । प्रभु विराटता की पराकाष्‍ठा होने पर भी लघु रूप से हमारे इतने करीब हैं कि उनसे करीब और कोई हो ही नहीं सकता ।


जब हमें पता चलता है कि इतने ऐश्‍वर्यवान प्रभु को भक्ति के बल पर हम इतना करीब ला सकते हैं तो हमें "भक्ति का महत्‍व" समझ में आता है । प्रभु का ऐश्‍वर्य इतना विराट, हमारी लघुता इतनी लघु - फिर भी दोनों का एकीकरण भक्ति द्वारा संभव होता है ।


भक्ति द्वारा इतने विराट रूप वाले, इतने ऐश्‍वर्यवान प्रभु हमें लड्डूगोपाल रूप में दर्शन देते हैं । प्रभु हमारे परमपिता हैं पर भक्‍तों के लिए वे पुत्ररूप में यानी लड्डूगोपाल रूप में आ जाते हैं । भक्ति का सामर्थ्य देखें कि अपनी रोमावली में कोटि-कोटि ब्रह्माण्‍ड को धारण करने वाले प्रभु छोटे से लड्डूगोपाल रूप में हमारे मन-मंदिर में बस जाते हैं ।


भक्ति के बल पर हम इतने ऐश्‍वर्यवान और विराट प्रभु को लाड़ लड़ाते हैं । प्रभु को स्‍नान करवाते हैं, प्रभु को पोशाक धारण करवाते हैं, प्रभु का श्रृंगार करते हैं, प्रभु को भोग अर्पण करते हैं, प्रभु को शयन करवाते हैं । इतने ऐश्‍वर्यवान और विराट प्रभु को हम अपने अनुसार ढाल लेते हैं । हमारे लाड़ लड़ाने की प्रक्रिया में जैसा हम चाहते हैं प्रभु वैसा ही करते हैं ।


जब हम अपने मन और मंदिर में प्रभु की सेवा करते हैं तो प्रभु के लिए भक्ति का भाव होना चाहिए । साथ ही यह भाव भी होना चाहिए कि इस अदभुत भक्ति के बल पर ही इतने ऐश्‍वर्यवान और विराट प्रभु की सेवा का सौभाग्‍य हमें प्राप्‍त हुआ है ।


प्रभु की भव्‍यता, दिव्‍यता, विराटता और ऐश्‍वर्य का भान हमें जीवन में हर पल रहना चाहिए । इससे भक्ति में प्रगाढ़ता आएगी क्‍योंकि हमें पता चलेगा कि सिर्फ भक्ति के बल पर ही इतने भव्‍य, इतने दिव्‍य, इतने विराट और इतने ऐश्‍वर्यवान प्रभु हमारे बन गए हैं । भक्ति ही हमें प्रभु का लाड़ लड़ाने और प्रभु की सेवा करने का परम सौभाग्‍य प्रदान करती है ।


भक्ति नहीं होती तो इतने विराट प्रभु इतना लघु रूप लेकर हमें कृतार्थ करने नहीं पधारते । क्‍या हम विराट प्रभु को स्‍नान करवा सकते, क्‍या उन्‍हें पोशाक धारण करवा सकते, क्‍या उनका श्रृंगार कर सकते, क्‍या उन्‍हें भोग अर्पण कर सकते - यह कतई संभव नहीं था पर भक्ति के बल पर ही ऐसा संभव हो गया ।


हम प्रभु को मंदिर में लघु रूप में देखते हैं पर सच्‍चा भक्‍त वही होता है जो प्रभु के लघु रूप के दर्शन करते हुए प्रभु के विराट स्‍वरूप का चिंतन रखता है । प्रभु की भव्‍यता, दिव्‍यता, विराटता और ऐश्‍वर्य का सदैव भान रखता है । प्रभु के ऐश्‍वर्य को कभी नहीं भूलना चाहिए । प्रभु के सामर्थ्य को कभी नहीं भूलना चाहिए । प्रभु की भव्‍यता को कभी नहीं भूलना चाहिए । प्रभु की दिव्‍यता को कभी नहीं भूलना चाहिए और प्रभु की विराटता को कभी नहीं भूलना चाहिए ।