श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : जीव के पीछे प्रभु का एक शरणागत वत्सल पिता के रूप में खड़े रहना जीव को बड़ा संबल प्रदान करता है । प्रभु की शरणागति लेकर भक्ति से प्रभु को रिझाकर जीव मुक्‍त हो सकता है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



अगर हमारे पीछे शरणागत वत्सल प्रभु खड़े नहीं हो तो सोचिए क्‍या होगा । हमारे ललाट पर उभरी दुर्भाग्य की, मुसीबत की रेखा को कौन ठीक करेगा ? दुर्भाग्य की, मुसीबत की रेखा को ठीक मात्र प्रभु ही कर सकते हैं । इस विश्‍वास में बहुत बड़ा बल है । यह बल कितना बड़ा है जरा कल्‍पना करें ।


प्रभु नहीं हो तो हमारे दुर्भाग्य की, मुसीबत की रेखा को ठीक करने वाला कोई नहीं । रेखा ठीक नहीं हो सकती, यह स्थिति ही कैसी दुखद होगी । यह स्थिति तो ठीक वैसी ही है जैसे एक रोगी को पता चल जाए कि उसे एक जानलेवा बीमारी है जिसका कोई इलाज ही संभव नहीं है । एक तो बीमारी जानलेवा, दूसरा कोई इलाज नहीं, तो रोगी कितना विचलित हो उठेगा । वैसे ही अगर शरणागत वत्सल प्रभु हमारे पीछे खड़े नहीं हो तो हम अपने दुर्भाग्य की, मुसीबत की रेखा से विचलित हो उठेंगे ।


ऐसा इसलिए क्‍योंकि दुर्भाग्य को, मुसीबत को सहने की शक्ति भी प्रभु ही देते हैं । उनसे लड़ने की शक्ति भी प्रभु ही देते हैं और उनसे निजात पाने का मौका भी प्रभु ही देते हैं ।


हम जन्‍मों-जन्‍मों के पाप के बोझ से दबे हुए हैं । यही हमारे दुर्भाग्य और मुसीबत के कारण हैं । अगर हमें पता चले कि इन पापों के कारण हमें नर्क की यातनाएं भोगनी पड़ेगी और जन्मों−जन्मों तक संसार चक्र में अलग-अलग योनियों में भटकना पड़ेगा और इससे छुटकारे का कोई उपाय नहीं है तो हम कितने विचलित हो जाएंगे । पर जब हमें पता होता है कि जन्मों−जन्मों के पाप क्षणमात्र में मिटाने की क्षमता प्रभु में है तो हम कितने निश्‍चिंत हो जाते हैं ।


प्रभु के बिना कितने विचलित थे । प्रभु को अपने साथ पाकर कितने निश्‍चिंत हो गए क्‍योंकि प्रभु की क्षमता अदभुत है । जन्मों−जन्मों के पाप मिटाने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ प्रभु में ही है ।


हम उतना पाप जन्मों−जन्मों में बटोर ही नहीं सकते जितना पाप क्षणभर में भस्‍म करने की क्षमता प्रभु में है । जैसे कपास यानी रूई का कितना भी बड़ा गोदाम हो और एक आग की चिंगारी लग जाए तो एक कोने से दूसरे कोने तक कपास को जला कर ही वह आग शान्‍त होगी, वैसे ही पापों का कितना बड़ा पहाड़ क्‍यों न हो, प्रभु की एक कृपा उसे नष्‍ट करके ही रहती है ।


पापों को भोगने के लिए नर्क का प्रावधान है । अनेक प्रकार के नर्क एवं अनेक प्रकार की यातनाओं का प्रावधान है । अगर प्रभु की अनुकम्‍पा का भरोसा न हो तो हमें इतने नर्कों को भोगना अनिवार्य हो जाएगा । जब हम श्री गरुड़पुराणजी में नर्कों का वर्णन सुनते हैं तो हमारी रूह कांप उठती है । उन नर्कों को सत्‍य में भोगना पड़े तो वह स्थिति कितनी भयप्रद होगी । पर हमें नर्क के भय से मुक्‍त करने के लिए प्रभु खड़े हैं । यह आभास होते ही वह भयप्रद स्थिति कितनी भयहीन हो जाती है । श्री यमदेवजी अपने दूतों से कहते हैं कि जिस जीव पर प्रभु कृपा हो जाती है उनके नर्क के बंधन सदैव के लिए खत्‍म हो जाते हैं । उन्‍हें कभी भी नर्क नहीं आना पड़ता ।


अगर प्रभु की कृपा न हो तो हम जन्मों−जन्मों तक संसार चक्र में ही उलझे रहेंगे । हम कर्म बंधन के कारण जन्‍म-मृत्यु के संसार चक्र में फंसे रहेंगे । यह स्थिति कितनी दुखद होगी । पर प्रभु हमें इस संसार चक्र से मुक्‍त होने का हेतु प्रदान करते हैं जिसके द्वारा हम सदैव के लिए आवागमन से मुक्‍त हो सकते हैं । मुक्ति रूपी विकल्‍प प्रभु ही हमें प्रदान करते हैं ।


प्रभु के द्वारा ही हमारे दुर्भाग्य और मुसीबत की रेखा मिटाई जाती है । प्रभु के द्वारा ही हमारे जन्मों−जन्मों के पाप का क्षय संभव होता है । प्रभु के द्वारा ही हमें नर्क से मुक्ति मिलती है और प्रभु के द्वारा ही हमें संसार चक्र के आवागमन से भी मुक्ति मिलती है । यह सब कुछ करने वाले प्रभु ही हैं पर इसका उपाय क्‍या है यानी क्‍या करने से ऐसा होगा ? क्‍या सबके लिए अलग अलग साधन हैं ? नहीं, सबके लिए एक ही साधन है और वह है भक्ति ।


भक्ति वह एकमात्र साधन है जो प्रभु को हम पर कृपा करने के लिए आतुर कर देती है । भक्ति के कारण भक्‍त का उद्धार करने हेतु प्रभु आतुर हो जाते हैं ।


भक्ति हमारे दुर्भाग्य और मुसीबत की रेखाओं को मिटा देती है । भक्ति दुर्भाग्य को सौभाग्‍य में बदल देती है । भक्‍त श्री प्रह्लादजी और होलिका के उदाहरण को देखें । होलिका को वरदान प्राप्‍त था कि एक चादर को ओढ़कर वह अग्नि में बैठ जाए तो आग उसे नहीं जलाएगी । उस चादर को ओढ़कर श्री प्रह्लादजी को गोदी में जकड़ कर वह आग की चिता में बैठ गई । उसने सोचा था कि वह तो सुरक्षित रहेगी और श्री प्रह्लादजी जल जाएंगे । प्रभु की प्रेरणा से सभी दिशाओं से हवा चली और होलिका की चादर उड़ गई । होलिका जल गई और बिना किसी चादर, बिना किसी वरदान के भी श्री प्रह्लादजी बच गए । जब उनके मित्रों ने पूछा कि आग की ताप नहीं लगी तो श्री प्रह्लादजी ने कहा कि आग ने उन्हें इतनी शीतलता प्रदान की जिसका वे वर्णन नहीं कर सकते । आग और शीतलता कैसे संभव है ? पर यह भक्ति का सामर्थ्‍य है कि ऐसा संभव हुआ । प्रभु ने भक्‍त के संरक्षण हेतु आग को भी शीतल बना दिया ।


भक्ति हमारे जन्मों−जन्मों के पापों का प्रभु से क्षय करवा देती है । इतना ही नहीं, भक्ति हमें नए पाप करने से रोक देती है । एक भक्‍त हृदय पाप कर ही नहीं सकता । भक्ति उसे पापों से बचाती है ।


भक्ति हमें नर्क से मुक्ति दिलाती है । कैसे ? नर्क का प्रावधान पापों को भोगने के लिए है पर जब भक्ति पापों का ही क्षय करवा देती है तो नर्क का प्रावधान भी भक्‍त के लिए वहीं समाप्‍त हो जाता है । जब पाप ही बचा नहीं तो नर्क जाना ही क्‍यों पड़ेगा ।


भक्ति हमें मुक्ति दिलाकर संसार चक्र से भी मुक्‍त कर देती है । पुनरपि जन्म पुनरपि मरण के प्रावधान को सदैव के लिए समाप्‍त कर देती है ।


शरणागत वत्सल प्रभु हमारे पीछे खड़े हैं, इस विश्‍वास में बहुत बड़ा बल है । भक्ति के द्वारा शरणागत वत्सल प्रभु रीझ जाते हैं, इस सिद्धांत में भी बहुत बड़ा बल है ।


इसलिए भक्ति के द्वारा शरणागत वत्सल प्रभु को रिझाने का काम अविलम्‍ब करना चाहिए । मानव जीवन को सार्थक करने का यही उपाय है ।