लेख सार : हम प्रभु से प्रार्थना कुछ मांगने के लिए या किसी डर से उबरने के लिए करते हैं । पर सच्ची प्रार्थना प्रभु के प्रिय बनने के लिए और प्रभु को अपना प्रिय बनाने के लिए होनी चाहिए । यही प्रार्थना का शिखर है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
हर धर्म में प्रभु की प्रार्थना करने का विशेष महत्व होता है । हम प्रार्थना अपनी इच्छा पूर्ति हेतु करते हैं या किसी डर भगाने हेतु करते हैं, यह प्रार्थना के अलग-अलग स्वरूप हैं ।
पर प्रार्थना का सच्चा स्वरूप यह है कि हम प्रार्थना इसलिए करें कि हम प्रभु को प्रिय हों और प्रभु हमें प्रिय लगें । यही प्रार्थना का सच्चा शिखर होता है ।
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने श्री रामचरितमानसजी के पूरे लेखन के बाद एक ही निवेदन प्रभु से किया कि आप (प्रभु) मुझे प्रिय लगें । कैसे प्रिय लगे, जैसे एक कामी को स्त्री प्रिय लगती है और एक लोभी को धन प्रिय लगता है । दूसरा निवेदन गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने श्री रामचरितमानसजी में अनेकों जगह किया कि मैं (तुलसी) आपको (प्रभु को) प्रिय लगूँ । इस प्रियता के कारण बस प्रभु इतना कह देवें कि "तुलसी मेरो" ।
प्रभु हमें प्रिय लगें यह तब संभव होगा जब प्रभु के सद्गुण, ऐश्वर्य और श्रीलीला हमें आकर्षित करेंगे और यह भक्ति की जागृति से ही संभव होगा । ऐसा होने पर प्रभु हमें प्रिय लगने लगेंगे ।
पर हम प्रभु को प्रिय लगें यह प्रभु कृपा से ही संभव है । क्योंकि हमारे भीतर इतने अवगुण बैठे हैं कि हम प्रभु को प्रिय लगें, यह संभव नहीं । जैसे एक सात्विक व्यक्ति को दूसरा सात्विक व्यक्ति ही प्रिय लगता है, वैसे ही प्रभु को, जो स्वयं सद्गुणों के भंडार हैं, एक सद्गुणी ही प्रिय लगेगा ।
इसलिए प्रभु के श्रीकमलचरणों को समर्पित एक प्रार्थना हमारे जीवन में नित्य रूप से आठों पहर यह होनी चाहिए कि प्रभु, मेरे अंदर कोई भी ऐसी चीज जो आपको पसंद नहीं है यानी अवगुण, उसका प्रवेश नहीं होने दें और जो चीज यानी सद्गुण आपको पसंद है उसका भरपूर प्रवेश हो, ऐसी अनुकम्पा करें ।
ऐसा निवेदन इसलिए करना चाहिए क्योंकि ऐसा होने पर ही हम प्रभु के प्रिय बन सकेंगे जो कि हमारे जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए । हमारे जीवन का भी लक्ष्य गोस्वामी श्री तुलसीदासजी की तरह यही होना चाहिए कि हम प्रभु के प्रिय बन सकें ।
ऐसे निवेदन में हमारा कोई स्वार्थ छिपा नहीं होना चाहिए । प्रभु के प्रिय होने पर हमें स्वतः ही जगत से मान मिलता है इसलिए अप्रत्यक्ष रूप से भी हमारे मन में नाम, शोहरत, इज्जत, रूतबा की लालसा नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह अहंकार के सूचक हैं । अहंकाररूपी अवगुण तो प्रभु को सबसे अप्रिय लगता है ।
एक स्पष्ट सिद्धांत है कि जो अपना अस्तित्व प्रभु के अनुरूप कर देता है, वही जगत में सच्चा मान पाता है । जैसे नदी में विभिन्न आकार के पत्थर जल से ठोकर खाते हैं और जल से निकलने पर भी लोगों की ठोकर खाते हैं पर जो पत्थर अपना अस्तित्व यानी आकार प्रभु अनुरूप यानी लिंग रूप में गोलाकार कर देते हैं वे जल में भी ठोकर नहीं खाते क्योंकि जल भी गोलाई के कारण उन्हें ठोकर नहीं मारता बल्कि उनके ऊपर से बहकर निकल जाता है और जल से निकलने पर भी लिंग रूप में वे पूज्य हो जाते हैं और उनकी पूजा होती है । वैसे ही जो जीव अपना अस्तित्व प्रभु अनुरूप कर लेते हैं यानी प्रभु को प्रिय सद्गुणों का संचार अपने भीतर कर लेते हैं और प्रभु को अप्रिय अवगुणों का अपने जीवन से त्याग कर देते हैं, वही संसार में सच्चा मान पाते हैं ।
इसलिए हमारे भीतर अवगुणों के नाश के लिए एवं सद्गुणों के विकास के लिए प्रभु से नित्य प्रार्थना होनी चाहिए । ऐसा निवेदन इसलिए करना चाहिए ताकि हम प्रभु के प्रिय बन सकें और सदा बने रहें क्योंकि यही हमारे जीवन का लक्ष्य है । इसके अलावा इस निवेदन में हमारा कोई स्वार्थ नहीं होना चाहिए और अगर अप्रत्यक्ष रूप से हो तो प्रभु से निवदेन करना चाहिए कि प्रभु उसे भी खत्म कर दें ।
ऐसी प्रार्थना नित्य हो और प्रभु की भक्ति की जागृति जीवन में हो तो हमारे अवगुण धीरे-धीरे मिटने लगते हैं और सद्गुणों का विकास जीवन में होने लगता है । अवगुण हटे और सद्गुण जीवन में आए तो हम प्रभु को प्रिय लगने लगते हैं और प्रभु हमें प्रिय लगने लगते हैं ।
जैसे एक सात्विक व्यक्ति को दूसरा सात्विक व्यक्ति प्रिय लगता है और दूसरे सात्विक व्यक्ति को पहला सात्विक व्यक्ति प्रिय लगता है, वैसे ही प्रभु को सद्गुणी व्यक्ति और सद्गुणी व्यक्ति को प्रभु प्रिय लगते हैं । प्रभु सद्गुणों के सागर हैं इसलिए प्रभु को एक सद्गुणी व्यक्ति ही प्रिय लगेगा और उस सद्गुणी व्यक्ति को प्रभु ही प्रिय लगेंगे ।
जीवन में हमें प्रभु प्रिय लगें और प्रभु को हम प्रिय लगें, ऐसा हो जाए तो यह हमारे मानव जीवन की पराकाष्ठा है । इसी पराकाष्ठा को भक्त प्राप्त करते हैं । ऐसी अवस्था में पहुँचने के बाद हमें फिर संसार प्रिय लगना बंद हो जाता है ।
पर आज हमें संसार प्रिय लगता है, संसार की वस्तुएं प्रिय लगती है, संसार के रिश्ते प्रिय लगते हैं । एक स्पष्ट सिद्धांत है कि संसार और प्रभु एक साथ, एक समय हमें कभी प्रिय नहीं हो सकते । जैसे प्रभु श्री सूर्यनारायणजी का प्रकाश और अंधकार कभी साथ नहीं रह सकते । प्रकाश है तो अंधकार नहीं रह सकता और अंधकार है तो प्रकाश वहाँ नहीं मिलेगा । वैसे ही संसार अगर प्रिय है तो प्रभु प्रिय नहीं लगेंगे और प्रभु अगर प्रिय हैं तो संसार प्रिय नहीं लगेगा । एक बहुत ऊँची अवस्था में ही प्रभु और संसार एक साथ प्रिय लगते हैं । वह अवस्था तब आती है जब पराभक्ति के कारण संसार ही हमें प्रभुमय दिखने लगे । संसार के हर कण में प्रभु दिखने लगे । यहाँ तक कोई बिरले ही पहुँच पाते हैं जैसे भक्त श्री प्रह्लादजी पहुँचे थे ।
इसलिए हमें भक्ति की जागृति करनी चाहिए कि प्रभु हमें प्रिय लगें और प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि हम प्रभु को प्रिय लगें । प्रभु हमें प्रिय लगें यह भक्ति की जागृति से ही संभव है क्योंकि भक्ति हमें प्रभु के सद्गुण, ऐश्वर्य और श्रीलीला का दर्शन करवाकर ऐसा करवा देती है । हम प्रभु को प्रिय लगें यह प्रभु कृपा से ही संभव है इसलिए ऐसी प्रार्थना नित्य होनी चाहिए कि ऐसी प्रभु कृपा हमारे जीवन में भी हो ।