श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : जीवन में प्रतिकूलता हमें प्रभु के समीप पहुँचाने का एक अति उत्‍तम साधन है । अगर जीवन में प्रतिकूलता है तो उसे प्रभु की कृपा प्रसादी मानकर जीवन प्रभुमय बनाना चाहिए । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



जीवन में वह घड़ी धन्‍य होती है जब प्रतिकूलता के पल हमें यह महसूस करवा देते हैं कि हमारा बल, हमारी बुद्धि और हमारी शक्ति कितनी थोड़ी और कितनी अपूर्ण एवं अपर्याप्त हैं ।


एक गरीब को उसकी प्रतिकूलता यह बता देती है कि साधारण जीवन यापन भी वह अपनी शक्ति और सामर्थ्‍य से नहीं कर सकता । एक अमीर को उसकी स्वास्थ्य की प्रतिकूलता यह बता देती है कि वह एक श्‍वास भी अपने पूरे जीवन काल में अर्जित किए धन को देकर नहीं खरीद सकता ।


अस्‍पताल के आईसीयू के सामने अच्‍छे-अच्‍छे नास्तिक भी प्रभु को नतमस्‍तक हो जाते हैं क्‍योंकि उनके धनबल, बुद्धिबल और शक्तिबल की खुमारी अपने आप उतर चुकी होती है । अब प्रभु को पुकारने के अलावा उनके पास कोई रास्‍ता नहीं बचा होता है ।


अपने धन, अपनी बुद्धि और अपनी शक्ति से विश्‍वास उठा तो तत्‍काल प्रभु के बल और शक्ति पर अथाह विश्‍वास जम जाता है । उदाहरण स्‍वरूप हमारे प्रयासों के बावजूद जीवन की बाजी हार चुके एक बच्‍चे को जब प्रभु से सच्‍चे मन से अरदास करने के कारण हम जीवित बचा पाते हैं तो हमें प्रभु कृपा पर अथाह विश्‍वास हो जाता है । चमत्‍कार को नमस्‍कार है, ऐसी कहावत है ।


पौराणिक पात्रों में पाण्‍डवों की माता भगवती कुन्‍तीजी ऐसी थी जिन्होंने प्रतिकूलता के पल को धन्‍य माना । पाण्‍डव श्री युधिष्ठिरजी के रूप में अपने धर्मबल, श्री भीमजी के रूप में अपने बाहुबल और श्री अर्जुनजी के रूप में अपने शस्त्रबल के बावजूद दर दर भटक रहे थे । प्रतिकूलता में भगवती कुन्‍तीजी ने महसूस किया कि धर्मराज की उपाधि से विभूषित श्री युदिष्ठिरजी, दस हजार हाथियों का बल धारण करे श्री भीमजी और अपने समय के श्रेष्‍ठ शस्त्रधारी श्री अर्जुनजी के साथ होने पर भी उनकी क्षमता और शक्ति क्‍या है । धर्म (श्री युधिष्ठिरजी) जुए में हार गए, बलधारी (श्री भीमजी) और शस्त्रधारी (श्री अर्जुनजी) भगवती द्रौपदीजी के चीरहरण के समय सिर झुका कर बैठे थे । प्रतिकूलता की इस बेला पर भगवती कुन्‍तीजी एवं भगवती द्रौपदीजी का विश्‍वास अब सिर्फ और सिर्फ प्रभु पर था ।


भगवती द्रौपदीजी ने चीरहरण के समय सबसे गुहार की, ससुरतुल्य धृतराष्ट्र, पितामह श्री भीष्‍मजी, गुरुवर श्री द्रोणाचार्यजी, काका श्री विदुरजी एवं राज्‍यसभा के सभी गणमान्‍य सदस्‍यों से एवं अपने पांचों पतियों से । पांच पति जिसमें से एक धर्मराज (श्री युधिष्ठिरजी), दूसरा बलराज (श्री भीमजी), तीसरा शस्त्रराज (श्री अर्जुनजी) के होते हुए भी अबला हुई भगवती द्रौपदीजी को अंत में अपने बल पर भी भरोसा था । उन्‍होंने अपनी साड़ी दोनों हाथों से पकड़ रखी थी । संतों ने बड़ी सुन्‍दर व्‍याख्‍या की है कि प्रभु को माता ने कहा कि एक अबला की लाज पर बन आई है और आप उसकी मदद को नहीं जा रहे - ऐसा क्‍यों ? प्रभु ने कहा कि अभी उसे अपने बल पर भरोसा है । जब भगवती द्रौपदीजी ने अपने बल को परख लिया और जब उन्‍हें लगा कि अपने बल से वे अब ज्‍यादा समय साड़ी नहीं पकड़ पाएंगी तब उन्होंने स्वतः दोनों हाथ उठाकर साड़ी को छोड़ दिया और मेरे प्रभु को पुकारा । फिर क्‍या था, प्रभु ने वस्त्र अवतार लिया और लिपट गए अपने भक्‍त से, उसकी लाज बनकर । फिर "साड़ी में नारी है कि नारी में साड़ी है" का वाक्‍य सत्य हो उठा ।


भगवती कुन्‍तीजी यह जानती थी कि प्रतिकूलता की वह घड़ी धन्‍य होती है तभी तो उन्‍होंने प्रभु से प्रतिकूलता मांगी जब प्रभु ने उन्‍हें वर मांगने को कहा । क्‍योंकि जब जब प्रतिकूलता होती है हम प्रभु को तन्मयता से पुकारते हैं और प्रभु तुरंत भक्‍त का उद्धार करने आते हैं ।


पौराणिक उदाहरण की जगह वर्तमान का उदाहरण देखें जब अस्‍पताल में किसी का लाड़ला पांच वर्षीय पुत्र, परिवार का एकमात्र चिराग बुझने वाला होता है । डॉक्टर जवाब दे देते हैं । बड़े से बड़े अस्‍पताल, महंगा से महंगा इलाज नाकाम होता जाता है । विदेश ले जाते हैं, वहाँ भी इलाज सफल नहीं हो पाता है । सम्‍पन्‍न परिवार रुपया पानी की तरह बहाता है पर धन की, बल की, शक्ति की खुमारी उतरने लगती है तब कोई भक्‍त उनसे प्रभु की अरदास की बात कहता है । प्रतिकूलता हावी हो चुकी होती है तब दादा-दादी, माता-पिता सभी प्रभु की शरण में जाते हैं । फिर मैं और मेरी शक्ति मिटकर प्रभु आप और आपकी कृपा का भाव हमारे अन्‍त:करण में दृढ़ता से बैठ जाता है । जीवन की वह घड़ी धन्‍य हो जाती है जब प्रतिकूलता हमारी औकात हमें महसूस करवा देती है । हमें हमारी पहुँच, विज्ञान की पहुँच सब पता चल चुकी होती है । फिर एकाएक तन्मयता से की पुकार प्रभु सुनते हैं और बच्‍चा नया जीवन पाता है । डॉक्टर इसे "चमत्‍कार" कहते हैं ।


ऐसा चमत्‍कार जब हम देखते हैं तो हमारे जीवन में ऐसा परिवर्तन आता है कि हमारा हर कार्य प्रभु के लिए, प्रभु को समर्पित होकर होने लगता है क्‍योंकि हम प्रभु की शक्ति में दृढ़ता से विश्‍वास करने लगते हैं । हम हर कार्य प्रभु की इच्‍छा के लिए करने लगते हैं । जीवन प्रभुमय हो उठता है । फिर आनंद हमारे घर उत्‍सव मनाता रहता है ।


पाण्‍डवों का जीवन प्रभुमय होने का जीवन्‍त उदाहरण है । महाभारत का युद्ध जीतने के बाद भी पाण्‍डवों ने सदैव प्रभु का सानिध्य पाते रहने का प्रयत्‍न किया और सफल भी हुए ।


जीवन को प्रभुमय बनाना है तो जीवन में प्रतिकूलता से घबराना नहीं चाहिए । यह तो वह साधन है जो हमें धन्‍य कर देती है जब यह हमारे मन, बुद्धि, विवेक में सभी जगह प्रभु को विराजमान कर देती है ।


अगर भक्ति प्रबल नहीं हो तो अनुकूलता प्रभु को हमसे दूर कर देती है जबकि प्रतिकूलता सदैव हमें प्रभु के समीप लाती है एवं भक्ति को जगाती है ।


भक्ति में जीवन जीने वाले कितने ही अमर पात्रों को प्रतिकूलता ने ही भक्‍त बनाया । इसलिए जीवन में जब प्रतिकूलता हो तो इसे भगवत् प्रसादी मानकर प्रभु के समीप पहुँचने का साधन जान प्रभु भक्ति अंतःकरण में जागृत करनी चाहिए । ऐसा होते ही हमारा मानव जीवन चमक उठता है ।