लेख सार : अच्छाइयों और बुराइयों का वास हमारे भीतर है । प्रभु से दूर जाते ही बुराइयां हमें घेर लेती हैं और हमारा पतन सुनिश्चित हो जाता है जबकि प्रभु के सानिध्य में आते ही अच्छाइयां हमारे भीतर से उभर कर आती हैं और बुराइयां हमारे भीतर शान्त हो जाती हैं । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
प्रभु से दूर जाते ही हमारा पतन और विनाश सुनिश्चित हो जाता है । इसलिए प्रभु सानिध्य में सब समय रहना ही हमारे श्रेष्ठ हित में है । प्रभु से दूर जाते ही हमारा पतन और विनाश क्यों सुनिश्चित होता है, क्योंकि प्रभु से दूर होते ही बुराइयां हमें घेर लेती है, दबोच लेती है । जब तक हम प्रभु के सानिध्य में थे, बुराइयां अपना सिर नहीं उठा पाई थी ।
बुराइयां और अच्छाइयां हमारे भीतर निवास करती है । दोनों अपने अनुकूल समय में अपने पैर फैलाती है । जब हम प्रभु के सानिध्य में होते हैं तो अच्छाइयां उभर कर आती हैं और बुराइयां छिप जाती हैं । प्रभु के सानिध्य में हम पाठ-पूजा के लिए जल्दी उठने लगते हैं, हम प्रभु के भोग में अर्पण सात्विक पदार्थ प्रसाद रूप में पाते हैं । सदाचार, नीति, सत्य हमारे भीतर जग जाते हैं । व्यक्ति में जितने सतोगुण बढ़ते हैं उसकी भक्ति उतनी बढ़ी है, ऐसा मानना चाहिए । इसका दूसरा अर्थ यह है कि अगर व्यक्ति भक्ति का ढोंग कर रहा है, आडम्बर कर रहा है तो उसके भीतर सतोगुण का विकास नहीं होगा । ऐसे में उसके ढोंग या आडम्बर की पोल भी खुल जाती है ।
पर जब हम प्रभु से दूर जाते हैं तो हमारे भीतर की अच्छाइयां छिपने लगती हैं क्योंकि बुराइयों का हमला होने वाला होता है, इसलिए अच्छाइयां मैदान छोड़ देती हैं । फिर बुराइयां हमें आकर घेरती हैं । आलस्य, ढोंग, दिखावा, द्वेष, असत्य, हिंसा इत्यादि, बड़ी लम्बी सेना है बुराइयों की । इनका सेनापति अहंकार है । एक छोटे से उदाहरण से हम इसे समझ सकते हैं । एक गरीब व्यक्ति था, सदाचारी था, नित्य स्वयं पूजा-पाठ करता था, प्रभु के सानिध्य में रहता था इसलिए सात्विक था । उसमें कोई अवगुण नहीं थे । धीरे-धीरे उसकी मित्रता एक व्यक्ति से हुई । दोनों ने साथ में व्यापार किया । कमाई होने लगी । गरीबी जाती रही । अब दिन दूनी रात चौगुनी कमाई हो रही थी । उसका स्वयं का पूजा-पाठ कम होने लगा, ज्यादा समय व्यापार में, धन कमाने में लगने लगा । मन में लालच आया । उसने मित्र को व्यापार से अलग कर दिया और उसका हक मार लिया । मित्रता द्वेष में बदल गई । अब वह मोटी कमाई के लिए झूठ बोलने, बेईमानी करने लगा । ढोंग, दिखावा जीवन में आ गया । असत्य बोलना उसका स्वभाव बन गया । अनैतिक कमाई अब उसे प्रिय लगने लगी । वह व्यापार में कामयाबी के लिए हिंसा तक पर उतर आया । अब उसके घर में पूजा-पाठ दिखावे के लिए होने लगे । कभी-कभी डर के कारण पूजा-अनुष्ठान करवाने लगा । पूजा में स्वयं का मन न लगने के कारण सात्विकता नहीं बची । सब तामसी हो गया ।
इस उदाहरण में आप देखेंगे कि जैसे-जैसे उस व्यक्ति के पास सम्पन्नता आने लगी, लालच के कारण वह धन कमाने को प्रधानता देने लगा और प्रभु से दूर होता गया । जैसे ही प्रभु से दूर होने लगा एक-एक करके बुराइयों ने उसे दबोच लिया । बुराइयां एक-एक करके अपना आसन जमाने लगी । जब असत्य जीवन में आता है तो वह सत्य को ठोकर मार कर आता है यानी बुराइयां आएगी तो अच्छाइयों को धकेल कर आएगी ।
सिद्धांत स्पष्ट है कि प्रभु से दूर जाते ही, प्रभु से विमुख होते ही हम पतनमुखी हो जाते हैं । जब तक जीवन में प्रभु का सानिध्य था, अच्छाइयां हमारे साथ थी, बुराइयां हमारी भीतर दबी बैठी थी और उनका अस्तित्व न के बराबर था । जैसे ही हमने माया को पकड़ा और प्रभु को छोड़ा तो अच्छाइयां कमजोर पड़ने लगी और बुराइयों ने अपना आक्रमण कर उन्हें धराशायी कर दिया ।
अब दूसरा उदाहरण लें तो हम समझेंगे कि प्रभु के समीप आने से कैसे बुराइयां भागती है और अच्छाइयों का कैसे उदय होता है । उसी व्यक्ति का उदाहरण लें जो बुरा बन गया था । खूब पैसा कमाने के बाद उसने पाया कि उसका स्वास्थ्य बिगड़ गया । दसों दवाइयां सुबह-शाम लेनी पड़ती । मोटापा आ गया, श्वास फूलने लगी, नाना बीमारियों ने उसे घेर लिया । पत्नी से मन मुटाव हो गया, बच्चे गलत आदतों से घिर गए, व्यापार में अब दिक्कत आने लगी, सरकारी विभागों ने भी शिकंजा कसा और सब तरफ से वह घिर गया । अब उसे प्रभु की याद आई ।
एक रात स्वप्न में उसने देखा कि वह कितना सात्विक व्यक्ति था, भजनानंदी था । फिर कैसे माया की चपेट में आया और शरीर, परिवार सब खो दिया, व्यापार अब परेशानियों का सबब बन गया । फिर उसे अपना अंत दिखा कि नर्क में कितनी प्रकार की यातनाएं वह झेल रहा है और त्राहि त्राहि कर रहा है । तभी उसकी नींद खुली और उसने प्रतिज्ञा करी कि अब वह अपना जीवन प्रभु को समर्पित करेगा ।
वह कुछ समय के लिए तीर्थों में गया, प्रभु की कथा सुनी, जीवन में सत्संग और भजन वापस आया और उसने जीवनयापन के लिए जितना जरूरी था अपना व्यापार उतना समेट कर बची हुई पूँजी को एक ट्रस्ट बनाकर धर्म कार्य में लगा दिया । अब वह नित्य पूजा-पाठ और भजन करता, सात्विक भोजन, सात्विक दिनचर्या और प्रभु कार्य के रूप में जन सेवा में अपना समय और संसाधन लगाने लगा । उसके भीतर सात्विक गुण सब लौट आए क्योंकि प्रभु को उसने दोबारा पा लिया था ।
प्रभु से दूर जाते ही हमारा पतन और विनाश और प्रभु के समीप आते ही हमारा उत्थान, बस इतनी-सी बात हमारे मन और मस्तिष्क में बैठ जाए तो हम सदैव प्रभु के पास, प्रभु के सानिध्य में रहने के अवसर और बहाने खोजते नजर आएंगे । मानव जीवन की सफलता का रहस्य इसी में छिपा हुआ है ।
जीवन में ऐसा हो जाए तो प्रभु सानिध्य के प्रभाव से हमारे विचार, हमारा अंतःकरण सब पवित्र होने लगते हैं । प्रभु के सानिध्य का प्रभाव देखें कि हमारे भीतर एक गोलाकार रेखा सर्वदा और सदैव के लिए खिंच जाती है और हम उस लक्ष्मण-रेखा के भीतर सुरक्षित हो जाते हैं । बुराइयों का समूह जैसे द्वेष, ईर्ष्या, काम, लोभ, हिंसा, असत्य इत्यादि इस गोलाकार रेखा के अंदर प्रवेश नहीं कर सकते । इस गोलाकार रेखा के अंदर विद्यमान अच्छाइयां जैसे सत्य, सदाचार, नीति बाहर नहीं जा पाते एवं हमसे चिपके रहते हैं । प्रभु की यह कृपा-रेखा हमें जीवन भर निश्चिंत और जीवन के बाद हमारा प्रभु धाम जाना निश्चित कर देती है ।
इसलिए भक्ति के द्वारा प्रभु सानिध्य पाने का अविलम्ब प्रयास जीवन में करना चाहिए क्योंकि प्रभु का सानिध्य हमें बुराइयों के कूप्रभाव से बचाता है और अच्छाइयों को हमसे चिपकाए रखता है । अच्छाइयां रहेगी तो पुण्य बढ़ेंगे और बुराइयां दूर रहेगी तो हम पाप से बच पाएंगे । यही मानव जीवन की सफलता का राज है ।