लेख सार : निराशा के समय सबसे बड़ी आशा के रूप में प्रभु सदैव हमारे समक्ष उपस्थित रहते हैं । प्रभु के आते ही निराशा हमारे से दूर भागती है और आशा हमारा दामन थाम लेती है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
हमें अच्छाई, धर्म, प्रभु कृपा, प्रभु दया के प्रति निराशावादी कतई नहीं होना चाहिए क्योंकि इतिहास में ऐसे कई प्रसंग हैं जब बुराई ने अपनी जड़े इतनी मजबूत कर ली, इतनी फैला ली कि धर्म-कर्म, आस्था के सभी द्वार बंद कर दिए । उदाहरण स्वरूप हिरण्यकशिपु और रावण को ही लें । दोनों ने आसुरी राज्य स्थापित किया और अच्छाई का पतन हुआ, धर्म का पतन हुआ और अधर्म और बुराइयों ने अपने पैर पसारे । इन दोनों असुरों ने यहाँ तक कि खुद को परमात्मा की तरह शक्तिशाली बता खुद की पूजा भी करवाना प्रारंभ कर दिया था और धर्म के सभी द्वार बंद कर दिए थे ।
ऐसी अवस्था में प्रभु ने अपने श्रीवचनों को निभाते हुए और श्रीमद् भगवद् गीताजी के अमर श्लोक "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत" के उपदेशानुसार धर्म की रक्षा की और धर्म को पुनः स्थापित किया । ऐसे अनेकों उदाहरण इतिहास में हैं कि धर्म की हानि और अधर्म का बोलबाला होने पर प्रभु ने अधर्म का पतन कर धर्म की जय करवाई है ।
इसलिए निराशा के समय जब लगे कि अब धर्म बचा ही कहाँ है, अधार्मिक प्रवृत्ति का ही सर्वत्र बोलबाला हो, तब प्रभु में, प्रभु कृपा में, प्रभु दया में अडिग विश्वास स्वाभाविक रूप से हमारे मन में होना चाहिए । ऐसा नहीं हुआ तो हम भी अधर्म के मार्ग पर बढ़ चलेंगे क्योंकि मन में भाव आएगा, परिस्थिति ऐसा आभास करवाएगी कि हम अकेले अधर्मी की भीड़ में क्या कर लेंगे । हम कुछ कर पाए या नहीं पर गलत चीज को स्वीकारना सबसे बड़ी गलती होती है ।
प्रभु की भक्ति होगी तभी प्रभु में विश्वास होगा कि प्रभु ने पूर्व में अधर्म का नाश कर धर्म की ध्वजा को सदैव फहराया है और प्रभु ने धर्म की स्थापना हेतु श्रीमद् भगवद गीताजी में संकल्प लिया है, हर युग में धर्म की रक्षा का संकल्प ।
इसलिए सामाजिक जीवन में बुराई को देखते हुए, बुराई के बीच रहते हुए भी हमें निराशावादी नहीं होना चाहिए या बुराई में लिप्त भी नहीं होना चाहिए । यहाँ श्री रामचरितमानसजी के एक पात्र श्री विभीषणजी का उदाहरण सटीक बैठता है । बुराइयों के बीच रहकर भी धर्म के पथ पर चलने के कारण वे प्रभु के प्रिय बने और अखण्ड लंका का राज्य प्राप्त किया । चाहते तो श्री विभीषणजी भी कुम्भकर्ण की तरह बुराईरूपी रावण का साथ दे सकते थे । श्री विभीषणजी की अग्नि परीक्षा तब थी जब सब कुछ जानने वाले प्रभु ने श्रीलीला में उनसे रावण को मारने का भेद पूछा और बिना संकोच श्री विभीषणजी ने रावण की नाभि में अमृत होने का रहस्य बताया । श्री विभीषणजी जानते थे कि यह रहस्य बताने के बाद रावण की मृत्यु निश्चित है । पर उन्होंने बताया और वह भी बेहिचक । प्रभु ने सब कुछ जानते हुए भी परीक्षा लेने हेतु पूछा था । अधर्म का साथ न देकर धर्म का साथ देने की यह सबसे बड़ी परीक्षा थी और श्री विभीषणजी इसमें उर्त्तीण हुए । यही कारण था कि वे सदैव प्रभु के प्रिय बने रहे । बुराई का, अधर्म का साथ देते तो श्री विभीषणजी की गति भी कुम्भकर्ण, मेघनाथ की तरह होती । अच्छाई का, धर्म का साथ दिया तो लंकापति बन गए ।
श्री विभीषणजी जब रावण के अधीन लंका में रहते थे तो भी उनको आसरा और विश्वास मेरे प्रभु श्री रामजी का ही था । उनके निराशावादी समय में भी उनकी सबसे बड़ी आशा प्रभु श्री रामजी थे । उन्हें विश्वास था प्रभु की दया, प्रभु की कृपा पर ।
हमें भी व्यक्तिगत जीवन में सबसे निराशावादी समय में भी सबसे बड़ी आशा प्रभु की कृपा और प्रभु की दया की ही होनी चाहिए । प्रभु हैं मेरे साथ, बस यह अहसास दृढ़ हो जाए और यह दृढ़ता भक्ति से ही आ सकती है । ऐसा होने पर निराशा को आशा में परिवर्तित होते उतना समय भी नहीं लगेगा जितना बर्फ को धूप में रखने पर पानी बनने में लगता है । यह बात सिर्फ अनुभव से ही जानी जा सकती है । दुनिया में बहुत महापुरुष ऐसे हुए हैं जिन्हें घोर निराशा से निकालकर प्रभु ने उनके अंदर आशा की किरणों का संचार किया है ।
सूत्र क्या है जीवन की निराशा को आशा में बदलने का ? मार्ग क्या है निराशा से आशा की तरफ जाने का ? सूत्र एक ही है, मार्ग एक ही है, प्रभु भक्ति का मार्ग । भक्ति के द्वारा प्रभु की तरफ बढ़ने का मार्ग, भक्ति के द्वारा प्रभु के बन जाने का सूत्र । फिर निराशा वैसे भागेगी जैसे दिन होते ही अंधेरा भागता है । सूर्योदय होते ही अंधेरे से कहना नहीं पड़ता कि तुम जाओ । सूर्योदय का मतलब ही है कि अंधेरा का हटना । वैसे ही प्रभु के हमारे जीवन में आने का मतलब ही है कि निराशा और निराशावादी विचारों का जीवन से हटना ।
प्रभु के जीवन में आते ही आशा वैसे हमारे साथ रहती है जैसे परछाई सदैव हमारे साथ रहती है । हमें परछाई को कहना नहीं पड़ता साथ रहने हेतु । उसका स्वभाव है कि वह हमारे साथ-साथ चलेगी । वैसे ही प्रभु के जीवन में आते ही आशा हमारे साथ-साथ चलती है ।
निराशा भाग जाए जैसे अंधेरा भागता है दिन होने पर और आशा साथ रहे जैसे परछाई साथ रहती है, यह स्थिति सिर्फ और सिर्फ भक्ति ही उत्पन्न कराती है । प्रभु की भक्ति में ही इतना बड़ा सामर्थ्य है । ऐसा सामर्थ्य अन्य कहीं मिल ही नहीं सकता जो निराशा और आशा में उपरोक्त परिणाम दे सके ।
इतिहास गवाह है कि विपदाओं में, निराशा में भक्ति द्वारा प्रभु की अंगुली पकड़ने से कितना बड़ा बदलाव जीवन में आया है । जीवन्त उदाहरण पाण्डवों का है जब श्री युधिष्ठिरजी ने राजसूय यज्ञ की इच्छा की तो प्रभु ने हंसकर पूछा कि क्या राजस्यु यज्ञ कर यह दिखाना चाहते हो कि तुम कितने बड़े हो गए हो । प्रभु के श्रीकमलचरणों को पकड़ श्री अर्जुनजी ने कहा कि प्रभु हम दुनिया को यह दिखाना चाहते हैं कि हमारे पास सूई जितनी भूमि भी नहीं थी, दर-दर भटक रहे थे, हमारे प्राणों पर कितने संकट आए पर सिर्फ एक प्रभु ने हमारे निराशा को आशा में बदल दिया । इन श्रीकमलचरणों की महिमा जग को बताना चाहते हैं जिनको पकड़ने के कारण, दर-दर भटकने वाले पाण्डव पूरे विश्व के अधिपति बन गए और राजसूय यज्ञ करने जितने सामर्थ्यवान बन गए ।
घोर निराशा के समय आशा की एकमात्र किरण का नाम ही "प्रभु" हैं । प्रभु को पाने के मार्ग का नाम ही "भक्ति" है ।