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161 |
प्रभु के लिए प्रथम कौन ? (प्रभु के लिए भक्त ही प्रथम)
हम प्रभु के अंश हैं और प्रभु हमारे अंशी हैं । अंशी के सद्गुण अंश के अंदर भी आते हैं । जैसे संसार में हमें कोई महत्व और प्राथमिकता देता है और हमारी सेवा करता है तो हम उस पर प्रसन्न होते हैं और हम भी उसे प्राथमिकता देते हैं । वैसे ही कोई भक्त प्रभु को जीवन में सबसे ज्यादा महत्व और प्राथमिकता देता है और प्रभु की मन से और तन से सेवा करता है तो प्रभु उससे अति प्रसन्न होते हैं । ऐसा होने पर उस जीव के लिए प्रभु के हृदय से दया और करुणा बह निकलती है । फिर प्रभु उसे हर जगह और हर स्थिति में संभालते हैं । दूसरे शब्दों में कहना हो तो वह जीव प्रभु की प्राथमिकता बन जाता है ।
प्रभु की प्राथमिकता हम बन जाए तो इससे बड़ा मनुष्य जीवन का फल एवं मनुष्य जीवन की सफलता और उपलब्धि अन्य कुछ नहीं हो सकती ।
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162 |
हमें कहाँ जाने की तैयारी करनी चाहिए ? (हमें अपने असली घर प्रभु के धाम जाने की तैयारी करनी चाहिए)
हम किसी दूसरे शहर विवाह के लिए जाने के लिए काफी दिन पहले से तैयारी करते हैं । हम अपने वस्त्र और सज्जा द्वारा अपने रूप को लायक बनाने का भरपूर श्रम करते हैं । हम सुंदर दिखे इसका हम पूरा-पूरा प्रयास करते हैं । पर क्या हम प्रभु के धाम जाने की भी तैयारी करते हैं ? क्या हम अपने मन और कर्म को उस अनुसार सजाते हैं जिससे प्रभु के धाम में हमें प्रवेश मिल सके ? हम ऐसा करने से चूक जाते हैं और जिस दिन मृत्यु बेला पर बुलावा आता है तो हम अपना दूषित कर्म और मैला मन लेकर यहाँ से प्रस्थान करने के लिए बाध्य होते हैं ।
हमारा दुर्भाग्य है कि हम संसार के भ्रमण की तो तैयारी करते हैं पर अपनी अंतिम यात्रा की तैयारी करने से चूक जाते हैं ।
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163 |
ममता किसकी देन है ? (ममता प्रभु की देन है)
प्रभु की एक श्रेष्ठ रचना ममतारूपी सद्गुण है । जरा कल्पना करें कि अगर जीव को प्रभु ने ममता न दी होती तो क्या होता ? प्रभु ने प्रत्येक नर नारी को ममता दी है । एक माता और पिता के अंदर अपनी संतान के प्रति कितना प्रेम भाव यानी ममतारूपी वात्सल्य होता है । प्रभु की प्रदान इस श्रेष्ठ धरोहर की छत्रछाया में नन्हा बालक कितना निश्चिंत रहता है । प्रभु ने अगर संतान के जन्म से पहले उसके माता-पिता में ममता का संचार नहीं किया होता तो उस नन्हे जीव का लालन-पालन और दुलार कैसे होता ? यह प्रभु की हर जीव पर अतुलनीय कृपा है कि प्रभु ने सबके हृदय में ममता दी है । अगर प्रभु ने ममता नहीं दी होती तो हम आपसी रिश्तों में प्रेम की कल्पना भी नहीं कर सकते ।
प्रभु के प्रेम का एक छोटा-सा प्रतिबिंब देखना हो तो माँ की ममता में देखना चाहिए ।
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164 |
प्रभु के लिए जीवन में क्या होना चाहिए ? (प्रभु के लिए जीवन में दो सिद्धांत होने चाहिए)
जीवन में दो सिद्धांत अटल हो जाए तो उसी क्षण हमारा कल्याण सुनिश्चित हो जाता है । पहला सिद्धांत यह है कि "प्रभु का निवास मेरे भीतर है" । इस सिद्धांत को मानते ही कोई अनीति का काम या गलत आचरण हम नहीं करेंगे । जो अवगुण भीतर हैं वे भी हम पर हावी नहीं हो पाएंगे । प्रभु हमारे भीतर दृष्टा के रूप में बैठे हैं यह भान होते ही हमारा व्यवहार ही बदल जाएगा । हम वैसा ही व्यवहार करेंगे जो भीतर विराजे प्रभु को प्रिय लगे । दूसरा सिद्धांत कि "प्रभु मेरे हैं" । अभी हमने संसार, परिवार, समाज सबको अपना मान रखा है । पर जब हम भक्ति के बल पर केवल प्रभु को अपना मानते हैं तो प्रभु प्रत्यक्ष रूप से भक्ति के कारण हमें अपनी अनुभूति देते हैं । अभी प्रभु अप्रत्यक्ष रूप से हमारे भीतर अप्रकट हैं जो सिर्फ और सिर्फ भक्ति से प्रत्यक्ष होकर प्रकट हो जाते हैं ।
प्रभु का निवास मेरे भीतर है और प्रभु मेरे हैं, इन दो सिद्धांतों को जीवन में दृढ़ता से मानना चाहिए ।
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जीवन में सद्गुण कैसे आएंगे ? (जीवन में सद्गुण प्रभु के साथ आएंगे)
अगर हम प्रभु की सेवा करते हैं, भक्ति करते हैं और प्रभु से प्रेम करते हैं तो प्रभु हमारे घर की ठाकुरबाड़ी में और हमारे मन मंदिर में आकर विराजेंगे । प्रभु जब आएंगे तो प्रभु की परछाई के रूप में श्रद्धा, करुणा, श्री, कीर्ति, वैभव, यश, मंगल, स्मृति, मेधा, क्षमा आदि अगणित सद्गुण साथ आएंगे और प्रभु का कृपापात्र मानकर हम पर भी कृपा करेंगे । सभी सद्गुणों को बिना प्रभु के हम अर्जित नहीं कर सकते । पर प्रभु के जीवन में आते ही बिना बुलाए सभी सद्गुण दौड़े चले आते हैं । प्रभु के कृपापात्र पर सद्गुण सदैव अपनी भरपूर कृपा करते हैं । इसलिए सभी सद्गुणों को अपने जीवन में लाना हो तो प्रभु को अपने जीवन में भक्ति करके लाना चाहिए क्योंकि सभी सद्गुण प्रभु की परछाई हैं । इसलिए प्रभु के जीवन में आते ही वे स्वयं चले आते हैं और उन्हें अलग से बुलाना नहीं पड़ता ।
इसलिए जीवन में भक्ति करके प्रभु को लाए तो सभी सद्गुण भी स्वतः चले आएंगे ।
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166 |
प्रभु से क्यों कुछ नहीं मांगे ? (प्रभु को हमारी सभी जरूरतों का पता है इसलिए प्रभु से कुछ नहीं मांगे)
प्रभु से कुछ नहीं मांगना चाहिए क्योंकि प्रभु को हमारी सभी वर्तमान और भविष्य की जरूरतों का पता है । मांगा उनसे जाता है जिन्हें हमारी जरूरत का पता न हो । हमसे भी ज्यादा प्रभु को हमारे बारे में ज्ञात है । प्रभु को हमारी इच्छा, हमारी चिंता का भान है और हमारी भलाई किसमें है यह भी हमसे ज्यादा प्रभु को पता है । इसलिए बिना मांगे सब कुछ प्रभु पर छोड़ देना चाहिए । प्रभु के हर निर्णय में हमें अपना परम हित देखना चाहिए और उसे जीवन में सहर्ष स्वीकार करना चाहिए । हम प्रभु से अपना वर्तमान देखकर भविष्य मांगते हैं पर प्रभु हमारा भविष्य जानकर हमें वर्तमान देते हैं । भविष्य में किसमें हमारा हित है यह एकमात्र प्रभु को ही पता है इसलिए सब कुछ बिना मांगे प्रभु पर छोड़ने में ही हमारा परम कल्याण है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अंतर्यामी और सर्वसामर्थ्यवान प्रभु से कुछ नहीं मांगे और प्रभु हमेशा हमारा हित करेंगे इस सिद्धांत पर अटल विश्वास रखें ।
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167 |
परमानंद किसके पास है ? (परमानंद केवल प्रभु के पास ही है)
जीवन में प्रभु के समीप जाते ही हमें आनंद और परमानंद की अनुभूति होती है क्योंकि आनंद और परमानंद के मूल स्त्रोत प्रभु ही हैं । जो चीज जहाँ है वह हमें वहीं से प्राप्त होगी । आनंद और परमानंद संसार में है ही नहीं और हम उसे संसार में खोजते हैं तो वह वहाँ कैसे मिलेंगे ? संसार में मात्र सुख है जो आनंद और परमानंद से बहुत छोटा है और गौण है । संसार के सुख पाने के लिए हम कितना श्रम और दिन-रात प्रयास करते हैं । उसका एक तिहाई प्रयास भी प्रभु भक्ति के लिए करें तो हम प्रभु का सानिध्य निश्चित पा जाएंगे । फिर आनंद और परमानंद दोनों हमें मिल जाएंगे । कितना आसान तरीका है आनंद और परमानंद को पाने का कि भक्ति करके प्रभु के समीप पहुँचा जाए । सच माने कि जितना सांसारिक सुख के लिए परिश्रम है उससे बहुत थोड़ा प्रयास हमें प्रभु के समीप लाकर आनंद और परमानंद की प्राप्ति करवा देता है ।
सांसारिक सुख बहुत छोटा और गौण है जबकि आनंद और परमानंद एक शिखर है जो प्रभु की भक्ति से हमें प्राप्त हो सकता है ।
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कौन सदैव हमारे अनुकूल हैं ? (प्रभु सदैव हमारे अनुकूल हैं)
संसार में ज्यादातर लोगों का व्यवहार ज्यादातर समय अनुचित मिलेगा । इसलिए परमपिता प्रभु से ही हमें रिश्ता रखना चाहिए पर हम दुनिया से रिश्तों को ज्यादा अहमियत देते हैं । इससे हमें अंत में निराश होकर पछताना ही पड़ता है । अंत में ऐसा रिश्ता संसार में हमें दुःख देता है यह हमने सुना है, देखा है और पाया भी है और फिर भी हम ऐसा ही करते हैं । यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है ? हमें अपना परिपक्व रिश्ता केवल और केवल प्रभु से ही रखना चाहिए । प्रभु सदैव हमारे अनुकूल और अनुकूल ही मिलेंगे इसलिए सबसे परिपक्व रिश्ता प्रभु से ही कायम करना चाहिए । जो हमारे संचित कर्मफल हैं उसके एवज में प्रभु ने जो हमें प्रदान किया है वह एकदम उचित है । फिर भी अपने प्रिय भक्तों के लिए प्रभु का नियम है कि अनुकूलता के समय कृपा करके अनुकूलता को प्रभु बढ़ा देते हैं और प्रतिकूलता के समय कृपा करके प्रतिकूलता को घटा देते हैं ।
इसलिए जीवन में सदैव परमपिता प्रभु से ही परिपक्व रिश्ता कायम करना चाहिए ।
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अंतिम अवस्था में कौन बचा सकता है ? (अंतिम अवस्था में प्रभु ही बचा सकते हैं)
भगवती द्रौपदीजी की लाज जा रही थी, श्री गजेंद्रजी के प्राण जा रहे थे । दोनों ने पहले अपना कुटुंबबल और फिर अपना स्वयं का बल लगाया पर जब उन्हें लगा कि उनकी हार होगी तो अंतिम अवस्था में दोनों ने प्रभु को याद किया और प्रभु की शरणागति ली । तुरंत प्रभु ने कृपा की और भगवती द्रौपदीजी की लाज बजी और श्री गजेंद्रजी के प्राण बचे । यह इस सिद्धांत को प्रतिपादित करता है कि अंतिम अवस्था में भी किया गया प्रभु सुमिरन हमें
बड़ी-से-बड़ी विपत्ति से बचा लेता है । अपने शरणागत की प्रभु हर अवस्था में रक्षा करते हैं चाहे वह अंतिम अवस्था में क्यों न हो । इस तथ्य पर विश्वास करने से हमें जीवन जीने में कितना बड़ा बल मिलेगा कि सदैव प्रभु हमारी रक्षा करने के लिए उपलब्ध है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की भक्ति कर प्रभु के सानिध्य में ही सदा निर्भय और निश्चिंत होकर रहे ।
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संसार में हम किसके जाल में फंसते हैं ? (संसार में हम माया के जाल में फंसते हैं)
जैसे मकड़ी जाला बुनकर कीटक को फंसाती है वैसे ही माया अपना जाल बुनकर संसार के जीवों को फंसाती है । माया के प्रभाव से कोई नहीं बच पाया है और सिर्फ जिस पर प्रभु की कृपा होती है वही माया के प्रभाव से बच पाता है । प्रभु के कृपा पात्र पर माया अपना प्रभाव नहीं डालती और उसके जीवन से हट जाती है अन्यथा माया सबको पटकी मारती है । बड़े-से-बड़े माया के प्रभाव से प्रभावित हुए बिना नहीं बच पाते । माया से बचने का एक ही उपाय है कि प्रभु की भक्ति करके प्रभु की शरणागति ग्रहण कर लेना । प्रभु की शरण में आने पर माया उस जीव के जीवन से निष्क्रिय हो जाती है और अपना प्रभाव नहीं डालती । माया से बचने का अन्य कोई भी उपाय या साधन नहीं है । माया निश्चित हमें भ्रमित करती है और हमारा पतन करवाती है इसलिए माया से बचने का साधन हमें अपनाना चाहिए ।
जीवन में प्रभु की भक्ति करके माया के प्रभाव से बचा जा सकता है और हमें ऐसा ही करना चाहिए ।
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