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किसके सानिध्य का प्रभाव सबसे ज्यादा होता है ? (प्रभु के सानिध्य का प्रभाव सबसे ज्यादा होता है)
हम प्रभु के सानिध्य में रहते हैं तो बुराइयां हमारे अंतःकरण से निकल भागती है और अच्छाइयां हमारे अंतःकरण में आकर बस जाती है । केवल प्रभु के सानिध्य के प्रभाव में ही ऐसा संभव है अन्यथा और किसी उपाय से यह संभव नहीं है । जीव अपना कितना भी प्रयास इस दिशा में लगाए पर वह ऐसा कर पाने में सफल नहीं होता क्योंकि उसके पुरुषार्थ से यह संभव नहीं है । यह संभव है तो केवल और केवल प्रभु सानिध्य से । प्रभु के सानिध्य को पाने का एकमात्र उपाय प्रभु की भक्ति है । इसलिए हम सदैव पाएंगे कि भक्त हृदय में अच्छाइयों का वास होता है और बुराइयों के लिए स्थान नहीं होता ।
इसलिए जीवन में भक्ति करनी चाहिए जिससे हम प्रभु का सानिध्य पा सकें और अच्छाइयों को अपनाकर और बुराइयों को अपने से दूर रखकर हम अपना मानव जीवन सफल कर पाए ।
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मानव जीवन सार्थक करने के लिए क्या करें ? (भक्ति करें और माया के प्रभाव से दूर रहें)
जिस जीव के जीवन से भक्ति चली जाती है उसके जीवन में माया का प्रभाव आ जाता है । ऐसे ही जिसके जीवन में भक्ति आ जाती है उसके जीवन से माया का प्रभाव चला जाता है । भक्ति और माया एक साथ एक जगह कभी नहीं रहती क्योंकि भक्ति का मार्ग और माया का मार्ग दोनों विपरीत दिशाओं में है । जहाँ प्रभु की भक्ति होती है वहाँ माया को प्रवेश नहीं मिलता । ऐसे ही माया के मार्ग पर चलने वाले जीव जीवन में भक्ति से प्रभावित नहीं होते ।
इसलिए अगर हमें अपना मानव जीवन सार्थक करना है तो भक्ति पथ पर चलना चाहिए जिससे माया हमें प्रभावित नहीं कर सके । माया के चक्कर में पड़कर जीवन जीना मूर्खता है ऐसा शास्त्र, ऋषि और संत मत है ।
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कैसा मानव जीवन सफल माना जाता है ? (प्रभु को अर्पित मानव जीवन सफल माना जाता है)
प्रभु के प्रति समर्पण में कभी कोई कमी नहीं रखनी चाहिए । प्रभु की सेवा में भी कोई कमी नहीं रखनी चाहिए । प्रभु से प्रेम करने में भी कोई कमी नहीं रखनी चाहिए और प्रभु की भक्ति करने में भी कोई कमी नहीं रखनी चाहिए । जो ऐसा करने में सक्षम होता है प्रभु बड़ी प्रसन्नता से उसको स्वीकारते हैं । हमें अपने आपको पूरा-पूरा प्रभु को समर्पित करना चाहिए । हमें आठों याम प्रभु की सेवा करनी चाहिए । हमें जी भरकर प्रभु से प्रेम और प्रभु की भक्ति करनी चाहिए । इन सबमें रत्ती-भर भी कसर नहीं छोड़नी चाहिए और पूरी तरह से बढ़िया-से-बढ़िया रूप में करनी चाहिए तभी हमारा मानव जीवन सफल होगा ।
ऐसा होना मानव जीवन की सर्वोच्च ऊँचाई है और परम सफलता है ।
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कैसी भक्ति प्रभु को प्रिय ? (सच्ची और निष्काम भक्ति प्रभु को प्रिय)
जिस जीव में सच्ची और निष्काम भक्ति हो हमें वैसे जीव से ही रिश्ता बनाना चाहिए और वैसे व्यक्ति से ही रिश्ता रखना चाहिए । जिस किसी की भक्ति स्वार्थ की हो या ढोंगी हो उनसे हमें सावधान रहना चाहिए । क्योंकि ऐसे स्वार्थी और ढोंगी का संग करने से हमारी सच्ची और निष्काम भक्ति भी प्रभावित होती है । ऐसे में हमारी सच्ची और निष्काम भक्ति का पतन हो सकता है और वह क्षीण पड़ सकती है । इसलिए हमें सदैव सावधान रहना चाहिए और सच्ची और निष्काम भक्ति करने वाले का ही जीवन में संग करना चाहिए । ऐसा इसलिए कि सच्ची और निष्काम भक्ति ही प्रभु को सबसे प्रिय है और प्रभु ऐसी भक्ति करने वाले की बाट जोहते हैं ।
इसलिए जीवन में सच्ची और निष्काम भक्ति ही करनी चाहिए और ढोंगी और स्वार्थी भक्तों से बचना चाहिए ।
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मानव जीवन में क्या करना चाहिए ? (मानव जीवन में प्रभु प्राप्ति करनी चाहिए)
किसी भी परीक्षा में उत्तीर्ण होना कठिन है क्योंकि उसके लिए मेहनत और परिश्रम की जरूरत होती है पर परीक्षा में फेल होना एकदम सरल है क्योंकि उसमें कोई मेहनत और परिश्रम की जरूरत नहीं पड़ती । हमने अगर कुछ नहीं पढ़ा तो हम निश्चित फेल हो जाएंगे । इसी तरह मानव जीवन में उत्तीर्ण होना यानी प्रभु को प्राप्त करना कठिन है पर असंभव कतई नहीं है और मानव जीवन में फेल होना यानी प्रभु को प्राप्त नहीं कर पाना और फिर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करना एकदम सरल है । मानव जीवन लेकर भक्ति मार्ग पर चलकर प्रभु प्राप्ति का प्रयास नहीं किया और उल्टा काम, क्रोध, मद, लोभ और विषयों में फंसे रहे तो फिर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण एकदम पक्का है ।
यह हमें देखना है कि हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों में सदैव के लिए पहुँचना है या फिर चौरासी लाख योनियों के जन्म-मरण के चक्र में फंसना है, निर्णय हमारा है ।
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भक्ति का मर्म क्या है ? (प्रभु के लिए अतृप्ति भक्ति का मर्म है)
भक्ति का मर्म है कि संसार से तृप्ति होती है और प्रभु से अतृप्ति होती है यानी प्रभु की श्रीलीला, प्रसंग, तीर्थ, सत्संग, भजन को बार-बार जानते हुए भी जानने, सुनने और देखने की प्रबल इच्छा होती है । इसके ठीक विपरीत माया का मर्म है कि संसार से हमारी अतृप्ति कराना यानी भोग विलास, वासना, कामना की अतृप्ति और प्रभु की भक्ति में तृप्ति करा देना । माया के प्रभाव में हम सुबह एक बार मंदिर चले गए फिर पूरे दिन की छुट्टी हो गई यानी एक बार मंदिर चले गए फिर पूरे दिन प्रभु से तृप्ति है और फिर पूरे दिन संसार में उलझे रहना और अतृप्त रहना, यह माया करवाती है ।
माया का उद्देश्य और मर्म यही है कि वह हमें अपने में उलझा कर प्रभु से दूर करती है । इसलिए प्रभु की भक्ति करके हमें माया के प्रभाव से बचना चाहिए ।
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चिंता बनाम चिंतन में क्या करें ? (प्रभु का चिंतन करें)
संसारी चिंता और प्रभु के चिंतन में फर्क अदभुत है । संसारी चिंता हमें पल-पल जलाती है और हमें डराती है । पर प्रभु का चिंतन पल-पल हमें निर्भय और आश्वस्त करता है कि किसी भी विकट परिस्थिति में रक्षा करने के लिए प्रभु सदैव हमारे साथ हैं । प्रभु का चिंतन करने वाले की रक्षा प्रभु हर परिस्थिति में करते हैं । चिंता करना हमें बीमारियों की तरफ ढ़केलता है जबकि प्रभु का चिंतन करना हमें चौरासी लाख योनियों के आवागमन से मुक्त करा देता है । अब यह हमारे ऊपर है कि हमें संसारी चिंता करना है या उसकी जगह प्रभु का चिंतन करना है ।
इतिहास के सभी भक्तों ने अपनी चिंता कभी नहीं की और अपना समय इसमें बर्बाद नहीं किया । उन्होंने अपने समय का सदुपयोग प्रभु का चिंतन करने में ही किया ।
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किसका द्वार सदा खुला रहता है ? (प्रभु का द्वार सदा खुला रहता है)
संसार के हर दरवाजे कभी-न-कभी बंद होते हैं । पिता, माता, भाई, ससुर, साला सबके दरवाजे एक हद के बाद बंद हो जाते हैं । पर प्रभु का दरवाजा एकमात्र ऐसा है जो सदैव और हर परिस्थिति में खुला ही रहता है । प्रभु के द्वार में न तो कभी ताला लगता है और न ही वहाँ के द्वारपाल कभी हमें भीतर जाने से रोकते हैं । प्रभु सदैव और सभी समय सबके लिए उपलब्ध रहते हैं । संसार हमसे मुँह मोड़ सकता है पर प्रभु कभी भी, किसी से मुँह नहीं मोड़ते । प्रभु के यहाँ 24 घंटे, 365 दिन कोई भी, कभी भी आ सकता है और कितनी बार भी प्रभु के द्वार पर दस्तक दे सकता है ।
इसलिए हमें प्रभु की भक्ति करके प्रभु से प्रेम करना चाहिए जो कि सदैव हमारे लिए उपलब्ध हैं ।
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किस पूंजी की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता ? (आध्यात्मिक पूंजी की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता)
हम अपनी कन्या के लिए लड़का देखने जाते हैं तो लड़के का बाहरी रूप देखते हैं, भीतर का रूप नहीं देखते । हम चमड़ी का रंग और सुंदरता देखते हैं पर कितने सद्गुण उसमें हैं यह नहीं देखते । हम उसकी संसारी विद्या देखते हैं पर आध्यात्मिक विद्या नहीं देखते कि उसे श्री रामायणजी, श्री महाभारतजी, श्रीमद् भगवद् गीताजी और श्रीमद् भागवतजी महापुराण का ज्ञान है भी कि नहीं । हम उसका सांसारिक धन देखते हैं पर प्रभु नामरूपी धन नहीं देखते कि उसने यह प्रभु नामरूपी धन कितना कमाया है । हम उसकी प्रभु नामरूपी धन कमाने की प्रवृत्ति नहीं देखते कि वह अपने जीवन काल में कितना नामरूपी धन कमा लेगा ।
पुराने जमाने के लोग लड़के का आध्यात्मिक धन देखते थे पर हम केवल संसारी धन देखते हैं । यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है और कितना बड़ा पतन है ।
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भक्तों के पाप पुण्य का हिसाब कौन करता है ? (भक्तों के पाप पुण्य का हिसाब प्रभु करते हैं)
प्रभु श्री यमधर्मजी और श्री चित्रगुप्तजी जब भक्तों के पाप और गलतियों का हिसाब निर्णय के दिन बनाते हैं और प्रभु को बताते हैं तो प्रभु मानो निद्रा में चले जाते हैं और सुनते ही नहीं । पर जब उस भक्त का पुण्य और सत्कर्म बताया जाता है तो प्रभु जग जाते हैं और उसका फल कई गुना बढ़ा कर देते हैं । यह प्रभु की अपने प्रिय भक्तों पर असीम और विलक्षण दया और करुणा का फल होता है । प्रभु की विलक्षण दया और करुणा के कारण भक्तों को पाप कर्म और गलतियों से माफी मिल जाती है और पुण्य कर्म और सत्कर्मों का कई गुना अधिक फल प्राप्त होता है । पर प्रभु ऐसा सिर्फ और सिर्फ अपने प्रिय भक्तों के साथ ही करते हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन प्रभु को ही अर्पण कर रखा हो । प्रभु अपने प्रिय भक्तों के लिए पक्षपात करते हैं, इस तथ्य को सभी ऋषियों और संतों ने माना है ।
इसलिए जीवन में प्रभु की भक्ति का चुनाव ही करना चाहिए और व्यर्थ की दुनियादारी में नहीं उलझना चाहिए ।
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