लेख सार : अलग अलग धर्म, पंथ के विभाजन के कारण हमारे बीच का समभाव खत्म हो गया है । पर भक्ति हमें एक ही प्रभु का दर्शन हर जगह कराती है और मंदिर, मस्जिद, चर्च रूपी इमारत में झुकने की जगह वहाँ विराजे एक ही परमपिता परमेश्वर के सामने झुकना सिखाती है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
जैसे हम एक सरोवर के अलग-अलग घाट पर जाएंगे पर सरोवर का जल तो एक ही मिलेगा, वैसे ही अगर अलग-अलग धर्म, पंथ के मार्ग से भी हम आगे बढ़ेंगे तो परमपिता परमेश्वर तो एक ही मिलेंगे । सबकी पहुँच अगर एक परमपिता परमेश्वर तक ही है फिर क्या फर्क पड़ता है कि कोई किसी भी घाट से सरोवर के जल तक पहुँचे या कोई किसी भी धर्म, पंथ से परमपिता परमेश्वर तक पहुँचे ।
एक बहुत मार्मिक पंक्ति मुझे याद है जिसमें एक सवाली परमपिता परमेश्वर से कहता है कि मैं तो तेरा दर देख झुक गया, यह तो तू ही जाने कि वहाँ तू ईश्वर रूप में है या अल्लाह रूप में या गॉड रूप में है ।
हम परमपिता परमेश्वर के दर पर झुकना सीख जाएं तो धर्म, पंथों के भेद-भाव तत्काल मिट जाते हैं । पर हम परमपिता परमेश्वर की जगह ईश्वर विशेष के दर पर झुकते हैं, तभी तो दूसरे धर्म और पंथ के प्रति हमारी संवेदना खत्म हो गई है । दूसरे धर्म की बात भी छोड़े, एक धर्म में भी हमने कितना विभाजन कर दिया है, कितने पंथ बना लिए हैं ।
प्रभु के घर पर जब हम पहुँचेंगे तो प्रभु जरूर पूछेंगे कि पूरे मानव जीवन में तुम इतना भी नहीं समझ पाए कि मैं (प्रभु) एक ही हूँ । हर धर्मग्रंथ में यह बात लिखी है पर हम इस तथ्य को जीवन में उतार नहीं पाते । परमपिता परमेश्वर को कितना दुःख होता है अपने बच्चों को आपस में लड़ते देखकर । उदाहरण स्वरूप एक संसारी पिता के तीन पुत्र हैं । सभी आपस में लड़ते-झगड़ते हैं, किसी में भी भाईचारा नहीं है तो पिता को कितना दुःख होगा कि एक ही पिता के पुत्र (यानी भाई-भाई) होते हुए भी कितनी कट्टरता है । यही दुःख परमपिता परमेश्वर को भी होता होगा कि मेरी संतानें मेरे नाम पर कितना लड़ते-झगड़ते हैं और आपस में समभाव नहीं रखते ।
यही सवाल सभी धर्म के लोगों से अंत में परमपिता पूछेंगे कि इतने दृष्टान्तों में श्रीग्रंथों में मैंने (प्रभु ने) स्पष्ट रूप से कहा है कि मैं (प्रभु) एक ही हूँ । मेरे इतने भक्तों ने, संतों ने, पीरों ने संसार को जगाते हुए ऊँचे स्वर में हर युग में यह बात कही है कि प्रभु एक ही हैं फिर क्यों मेरे नाम पर उलझते हो, झगड़ते हो ।
एक सांसारिक उदाहरण से समझें । एक सांसारिक पिता के जैसे तीन पुत्रों में एक पुत्र अपने पिता की शर्ट-पैन्ट में तस्वीर लगाकर रखता है, दूसरा कोट-टाई में तस्वीर लगाकर रखता है, तीसरा धोती-चोला में तस्वीर लगाकर रखता है पर पिता तो एक ही है । अब वे बच्चे आपस में झगड़ा करें कि मेरे शर्ट-पैन्ट वाले पिता श्रेष्ठ हैं, दूसरा कहे कि मेरे कोट-टाई वाले पिता बड़े हैं, तीसरा कहे कि मेरे धोती-चोला वाले पिता उत्तम हैं । यह झगड़ा पिता देखेंगे तो उन्हें कितना हास्यप्रद लगेगा, उन्हें अपने तीनों बेटों की मूर्खता देखकर कितना दुःख होगा ।
ऐसा ही परमपिता परमेश्वर को लगता होगा जब धर्म के नाम पर उनके बच्चे आपस में झगड़ते हैं । वह भी तब जब यह बात विश्व विदित है कि प्रभु तो एक ही हैं । वह परम शक्ति, वह आदिशक्ति तो एक ही है जो हम सबका संचालन करती है । "सबका मालिक एक" यह तीन शब्द हम पढ़ते, सुनते जरूर हैं पर उसका सार समझ जाएं और उसका सार जीवन में उतार लें तो सभी भेद-भाव मिट जाएंगे । फिर हम मंदिर, मस्जिद, चर्च रूपी इमारत में झुकने की जगह वहाँ विराजे एक ही परमपिता परमेश्वर के सामने झुकना सीख लेंगे । तभी वह स्थिति आएगी जब हम यह कह सकेंगे कि - आपका दर देख मैं तो झुक गया, अब यह आपको ही पता है कि आप यहाँ किस रूप में विद्यमान हैं ।
प्रभु किसी भी रूप में विद्यमान हों पर हैं तो वे एक ही । हम जिस रूप में प्रभु को देखते हैं प्रभु उसी रूप में हमें वहाँ मिलते हैं - यह स्पष्ट सिद्धांत है ।
सिर्फ भक्ति के बल पर ही यह धर्म का, पंथ का पर्दा हट जाता है और सर्वदा और सर्वदा परमपिता परमेश्वर ही हर जगह हमें दिखते हैं । फिर तत्काल ही सर्वधर्म सिद्धांत मान्य हो जाता है । फिर हर धर्म, हर पंथ के लिए हमें कोई संकोच नहीं होगा क्योंकि यह तथ्य हम समझ चुके होते हैं कि किसी भी घाट से पहुँचे पर सरोवर का जल तो एक ही है ।
सर्वधर्म सिद्धांत दृढ़ होते ही भाईचारा बढ़ने लगता है । जब पिता एक हैं और हम सब उनकी संतानें हैं तो भाई-भाई में प्रेम पनपेगा । जैसे एक संसारी पिता को अपने तीन पुत्रों में प्रेम देखकर प्रसन्नता होती है, वैसे ही परमपिता परमेश्वर को भी अपने बच्चों में प्रेम-भाईचारा देखकर अति प्रसन्नता होती है । इसके ठीक विपरीत अपने बच्चों में बैर-वैमनस्यता देखकर जैसे एक संसारी पिता दुःखी होता है वैसे ही धर्म, पंथ के नाम पर हमें झगड़ते देख परमपिता परमेश्वर को भी बेहद अफसोस होता है ।
"प्रभु एक ही हैं" - यह चार शब्द, "सबका मालिक एक" - यह तीन शब्द, "मालिक एक" - यह दो शब्द समझने के लिए हमें डिग्रीधारी, विद्वान या पढ़ा-लिखा होने की भी आवश्यकता नहीं । पर अफसोस तो यह है कि विद्वान और पढ़े-लिखे लोग ही इसे न तो समझते हैं और न ही इसे स्वीकार कर जीवन में उतारते हैं ।
भक्ति ही वह माध्यम है जो इन चार, तीन और दो शब्दों को हमें समझा सकती है । भक्ति की प्रबलता जीवन में आने पर आपको हर जगह यानी मंदिर, मस्जिद और चर्च में ईश्वर, अल्लाह और गॉड नहीं बल्कि एक ही परमपिता परमेश्वर दिखेंगे । फिर पूजा, सजदा और प्रार्थना में कौन बड़ा, कौन छोटा यह फर्क ही मिट जाएगा क्योंकि तीनों उन परमपिता परमेश्वर की बंदगी ही तो है । हर पंथ, हर धर्म के लिए हमारे मन में सम्मान जग जाएगा क्योंकि अन्ततोगत्वा हासिल तो उन सबको एक ही परम तत्व को करना है । मार्ग चाहे अलग हो सकते हैं, मंजिल तो सबकी एक ही है । किसी भी मार्ग से किसी को भी जाने की छूट है बशर्ते वह ठीक मंजिल तक पहुँच जाए ।
आज एक दूसरे धर्म के लिए कितना विरोध है । कोई भी छोटे परमपिता परमेश्वर की संतानें नहीं है क्योंकि छोटे परमपिता परमेश्वर हैं ही नहीं । परमपिता परमेश्वर तो एक ही हैं और हम सभी उन एक ही परमपिता परमेश्वर की ही संतानें हैं । इसलिए अपने धर्म पर सभी को जितना फक्र होना चाहिए उतना ही दूसरे के धर्म के प्रति सम्मान भी होना चाहिए तभी परमपिता परमेश्वर को प्रसन्नता होगी ।