श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : धर्म और नीति के मार्ग से प्रभु तक पहुँचा जा सकता है । भक्ति ऐसा विवेक हमें देती है कि हम धर्म और नीति का अनुसरण करते हैं । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



अधर्म के बीच रहकर धर्म का पालन करना श्रेष्‍ठता की पहचान है । धर्म के बीच रहकर धर्म का पालन करना साधारण बात है । क्‍योंकि धर्म के बीच रहने पर हमसे अपेक्षा होती है कि हम धर्म का ही पालन करेंगे । पर अधर्म के बीच रहकर धर्म का पालन करना बहुत श्रेष्‍ठ बात है ।


सतयुग के लोग सत्‍यवादी, नीतिवान होते थे । उदाहरण के तौर पर उस युग के व्‍यापारी की सात्विक वृत्ति होती थी । नाप तोल में कमी करना, मिलावट करना, झूठ बोलकर वस्‍तु बेचना इत्‍यादि वे नहीं करते थे । वे सिद्धांत, नैतिकता, नीति-नियम के पक्‍के होते थे जो उनके आचरण में स्‍पष्‍ट दिखता था । सतयुग में सबसे अपेक्षा होती थी कि वे ऐसा ही करें । पर युग परिवर्तन के उपरान्‍त कलियुग में प्रायः अनैतिकता, अनीति, झूठ का बोलबाला है । यहाँ तक कि सात्विक वृत्ति के व्‍यापारी को "मूर्ख" माना जाता है । सिद्धांत को ताक पर रखकर व्‍यापार करना, अनीति, झूठ का सहारा लेना, अनैतिक कमाई करने वाला ही समझदार, चतुर एवं सफल व्‍यापारी माना जाता है ।


पर धर्म की दृष्टि इसके ठीक विपरीत है । एक मार्मिक प्रसंग यहाँ दृष्टान्त के रूप में ठीक बैठता है । श्री रामचरितमानसजी के सुन्दरकाण्‍ड में प्रभु श्री हनुमानजी जब जगजननी भगवती सीता माता की खोज में लंका पहुँचे और श्री विभीषणजी से मिले तो श्री विभीषणजी ने कहा कि मेरी अवस्‍था तो वैसी है जैसे दाँतों के बीच जीभ की होती है । वे दुष्‍टों के बीच रहते थे और सात्विक प्रवृत्ति के थे । दुष्‍टों के बीच रहकर भी उन्होंने अपने सात्विक प्रवृत्ति को बचाए रखा था । प्रभु इससे ही रीझ गए । इस प्रसंग में हरिहर (हरि- प्रभु श्री विष्‍णुजी) और (हर- प्रभु श्री शिवजी) की महिमा भी स्‍पष्‍ट दिखती है । हरिहर एक ही हैं, प्रभु सभी रूप में एक ही हैं । प्रभु ही एक रूप में प्रेरणा देते हैं और दूसरे रूप में हमारा उद्धार करते हैं, इस तथ्‍य का दर्शन यहाँ स्‍पष्‍ट रूप से होता है । श्री विभीषणजी ने अपना दुःख दर्द "हर" (प्रभु श्री शिवजी के रुद्रावतार प्रभु श्री हनुमानजी) को बताया और प्रभु श्री हनुमानजी ने प्रभु की शरणागति का रास्‍ता दिखाया और विश्‍वास दिलाया कि प्रभु शरण में आने वालो के गुण-दोष देखे बिना शरणागति और अभय प्रदान करते हैं । फिर जब श्री विभीषणजी "हरि" (प्रभु श्री विष्‍णुजी के रामावतार प्रभु श्री रामजी) के शरण में गए तो प्रभु ने तत्‍काल उन्‍हें अपनी शरण में ले लिया और अभयदान दिया । सुन्‍दरकाण्‍ड की एक बड़ी मार्मिक चौपाई है - "सकुचि दीन्ह रघुनाथ" यानी बड़े सकुचाते हुए कि कहीं मैं कम तो नहीं दे रहा हूँ ऐसा सोचते हुए प्रभु ने लंका का अखण्‍ड यानी कभी खंडित न होने वाला राज्‍य क्षणभर में दे दिया । जिसको प्राप्‍त करने के लिए रावण ने इतने लम्‍बे समय तक इतना कठिन तप किया था उसे इतने तत्‍काल और बिना तप कैसे प्रभु ने दे दिया । गहराई में जाने पर पता चलता है कि प्रभु ने अनीति के बीच नीति पालन करने को ही तप मान लिया और इस तप के फल के रूप में अभयदान एवं अखण्‍ड लंका का राज दे दिया ।


अनीति के बीच नीति का पालन करना बहुत बड़ा तप है और यह प्रभु को अत्‍यन्‍त प्रिय है । जैसे कहा गया है कि धैर्य की परीक्षा विपत्ति में होती है वैसे ही नीति की परीक्षा अनीति के बीच रहकर होती है । किसी के पास बेईमानी का अवसर नहीं है और वह कहे कि मैं ईमानदार हूँ तो उसका कोई खास महत्‍व नहीं । जैसे एक कर्मचारी को सीलबंद तेल का डब्‍बा दे दिया जाए कहीं पहुँचाने हेतु और उसने सही स्थिति में वह डब्‍बा पहुँचा दिया और आकर कहा कि मैंने बेईमानी नहीं की तो इसका कोई खास महत्‍व नहीं है क्‍योंकि उसके पास बेईमानी करने का अवसर नहीं था । पर एक खुल्‍ला डब्‍बा में वह रास्‍ते में बिना मिलावट करें, सही माल निकालकर नकली भरने का अवसर होने पर भी ऐसा नहीं करें तो वह प्रशंसनीय है ।


एक सुन्‍दर मर्म को मेरे प्रभु श्री रामजी ने सुन्‍दरकाण्‍ड में श्री विभीषणजी के समक्ष रखा और शरणागति के वक्‍त इसी गुण को बताकर प्रभु ने अपने श्रीवचन में कहा कि "विभीषण, तुम अधर्म में रहकर भी धर्म का पालन करते हो इसलिए तुम मुझे अतिप्रिय हो" ।


आज के संदर्भ में देखें तो हम माया के बीच रहकर भी प्रभु भक्ति में रहें तो प्रभु को अतिप्रिय होते हैं । भक्ति जगते ही ऐसी प्रभु कृपा होती है कि अधर्म के बीच धर्म, अनीति के बीच नीति को हम स्‍वेच्‍छा से, सरलता से धारण कर लेते हैं ।


अधर्म के बीच धर्म, अनीति के बीच नीति निभाना जैसे दुष्‍टों को बड़ा कठिन जान पड़ता है वैसे ही भक्‍तों को बड़ा सरल जान पड़ता है । मेघनाथ में प्रभु भक्ति नहीं थी इसलिए उसके विवेक के नेत्र नहीं खुले पर उसी लंका में रहकर श्री विभीषणजी में भक्ति थी, भक्ति के सभी लक्षण थे इसलिए उनके विवेक के नेत्र खुले थे । उनमें विवेक था कि धर्म क्‍या है, अधर्म क्‍या है । उनमें विवेक था कि नीति क्‍या है और अनीति क्‍या है ।


ये "विवेक के नेत्र" भक्ति की देन होती है जो हमें अधर्म करने से रोकती है और धर्म करने की प्रेरणा देती है । दूसरे शब्‍दों में जो हमें पाप कमाने से रोकती है और पुण्य अर्जन में सहायक बनती है ।


हम जीवन में पाप से बचते हुए पुण्य कर्म की तरफ बढ़ते रहते हैं तो प्रभु के द्वार हमारे लिए खुल जाते हैं जैसे श्री विभीषणजी के लिए खुले थे । प्रभु ने एक रूप में उन्हें प्रेरणा दी और दूसरे रूप में उनका उद्धार कर दिया ।


इसलिए प्रभु की भक्ति को जीवन में अविलम्‍ब लाना चाहिए । इससे हमारा जीवन जीने का दृष्टिकोण ही बदल जाएगा । दृष्टिकोण सात्विक हो जाएगा । मैं बुराई कर सकता हूँ, पाप कर सकता हूँ, अनैतिक कमाई कर सकता हूँ पर मुझे नहीं करना है, यह भाव जग जाएगा । फिर हम गलत कार्य कभी नहीं करेंगे । इस तरह प्रभु के पास पहुँचने का हमारा मार्ग प्रशस्त हो जाएगा ।