लेख सार : प्रभु के ऐश्वर्य और सामर्थ्य के आगे हम बिलकुल ही बौने हैं फिर भी भक्ति के बल पर हम प्रभु से बंध सकते हैं क्योंकि वे ही हमारे परमपिता हैं । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
कभी हम लम्बे सफर के दौरान खिड़की से बाहर झांककर देखें तो पाएंगे कि कितने ही असहाय गरीब एवं विकलांग लोग, कितने पशु पक्षी की प्रजातियाँ, कितने छोटे जीव जैसे चींटी, कीड़े, मकोड़े इत्यादि हैं । उनका रोजाना पेट भरने की जिम्मेदारी किसने ले रखी है । उनके विपदा में पुकारने पर उनके अमंगल को हरने की जिम्मेदारी किसने ले रखी है । मेरे प्रभु ने ले रखी है ।
हम अपने छोटे से परिवार की जिम्मेदारी, एक उद्योगपति अपनी फैक्टरी के कर्मचारी की जिम्मेदारी, एक राजा अपने राष्ट्र के नागरिक की जिम्मेदारी भी ठीक से वहन नहीं कर पाता, ठीक से निभा नहीं पाता । उदाहरण के तौर पर, क्या एक राजा को 200 किलोमीटर दूर राज्य के एक जरूरतमंद की रात के 2 बजे की जरूरत का पता है और क्या उसका तत्काल निवारण करने की उसमें क्षमता है । 200 किलोमीटर दूर जरूरतमंद की रात के 2 बजे की जरूरत को जानना और उसका तत्काल निवारण कर पाना किसी राजा के लिए संभव नहीं । यही हाल एक परिवार के मुखिया और उद्योगपति का है । दूसरा उदाहरण लें कि एक परिवार का मुखिया व्यापार के सिलसिले में किसी दूसरे शहर गया हुआ है । उसके घर से रात को 2 बजे फोन आता है कि पत्नी को गंभीर हृदयघात हुआ है । वह दूर बैठा फोन पर कहेगा कि अमुक अस्पताल, अमुक डॉक्टर के पास तुरंत ले जाओ । ज्यादा से ज्यादा 5 - 6 फोन डॉक्टर एवं रिश्तेदारों को कर देगा । पर अंत में उसे कष्ट निवारण हेतु प्रभु से प्रार्थना करने बैठना ही पड़ेगा । उसकी शक्ति नहीं, उसका सामर्थ्य नहीं, चाहे वह कितना भी बुद्धिमान या धनवान हो कि वह अपनी पत्नी के कष्ट का निवारण स्वतः कर सके । उसे प्रभु की शरण में जाना ही होगा । विपदा के समय बड़े से बड़े नास्तिक भी प्रभु के सामने नतमस्तक हो जाते हैं क्योंकि उन्हें स्पष्ट पता होता है कि अब बचाने वाले केवल प्रभु ही हैं ।
एक राजा, एक परिवार के मुखिया का सामर्थ्य देखने के बाद अब मेरे प्रभु का ऐश्वर्य देखें । मेरे प्रभु अमावस्या की अंधेरी और काली रात में, कोयले के खान में, नन्हीं काली चींटी को भी देखते हैं एवं 24 घंटे 365 दिन उसकी पुकार सुनते हैं । ऐसा एक चींटी के लिए नहीं, प्रभु ऐसा खरबों-खरबों यानी असंख्य अगणित जीव (जलचर, नभचर, थलचर, वनस्पति) के लिए नित्य करते हैं । नित्य अगणित जीवों को देखने वाले, नित्य उनकी पुकार सुनने वाले, नित्य उनका पेट भरने वाले, नित्य उनकी विपदा में मदद पहुँचाने वाले एकमात्र मेरे प्रभु ही हैं । इस भाव को समझने पर प्रभु के विराट ऐश्वर्य का हमें तत्काल दर्शन हो जाता है । प्रभु के प्रबल ऐश्वर्य के आगे हम नतमस्तक हो जाते हैं क्योंकि कितना भी बलवान, बुद्धिमान और धनवान होने पर भी उस प्रबल ऐश्वर्य के आगे हमें अपना स्वयं का सामर्थ्य एक धूल के कण से ज्यादा कुछ नहीं प्रतीत होता है । प्रभु का प्रबल ऐश्वर्य यहाँ एक दृष्टान्त के रूप में कहा गया है जबकि प्रभु का असली ऐश्वर्य हमारी कल्पना से बाहर है और शब्दों से परे है ।
प्रभु के ऐश्वर्य का दर्शन हृदय में होते ही प्रभु के प्रति हमारा लगाव बढ़ने लगता है, हमारा प्रेम बढ़ने लगता है । इसी लगाव और प्रेम का दूसरा नाम भक्ति है । इतने सर्वसामर्थ्यवान प्रभु मात्र और मात्र भक्ति के बल पर तत्काल ही हमारे बन जाते हैं । भक्ति ही वह एकमात्र साधन है जो इतने ऐश्वर्यवान, सामर्थ्यवान प्रभु के नजदीक हमें पहुँचा देती है । कितना फर्क है प्रभु और हमारे में क्योंकि प्रभु इतने ऐश्वर्यवान, सामर्थ्यवान और हम इतने साधारण । फिर भी भक्ति जीव और "शिव" का मिलन करवा देती है ।
भक्ति हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों में नतमस्तक करवा देती है । प्रभु के श्रीकमलचरणों में नतमस्तक होते ही हमारे मस्तक के दुःख की रेखाएँ मिटने लग जाती है । हमारे दुःख की रेखाएँ कब मिट जाती हैं इसका हमें पता भी नहीं चलता । उनकी जगह सुख की नई रेखाएँ कब खींच जाती हैं, उसका भी हमें पता नहीं चलता । पारस के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है । पारस का स्वभाव है कि वह लोहे के गुण, दोष को नहीं देखता बल्कि स्पर्श होते ही वह लोहे को स्वर्ण कर देता है । ठीक वैसे ही मेरे प्रभु का स्वभाव है कि वे जीव के गुण, दोष को नहीं देखते । जीव का प्रभु के श्रीकमलचरणों से स्पर्श होते ही उसके दुःख तत्काल सुख में परिवर्तित हो जाते हैं । प्रभु के श्रीकमलचरणों की यही महिमा है और इससे कम वहाँ से कुछ मिल ही नहीं सकता । क्या पारस चाहकर भी लोहे को लोहा रहने दे सकता है, कदापि नहीं । इस तथ्य को एक और उदाहरण से समझें कि आपकी जेब में एक रूपए के सिक्के हैं । एक भिखारी आया तो आप उसे दस पैसे नहीं दे सकते क्योंकि दस पैसे का सिक्का आपके पास है ही नहीं । उसे न्यूनतम एक रुपया ही देना होगा । वैसे ही प्रभु के श्रीकमलचरणों का स्पर्श तो सुख ही देगा क्योंकि इसके अलावा और इससे कम वहाँ कुछ अन्य है ही नहीं ।
इसलिए हमारे मस्तक की सर्वोत्तम गति परम ऐश्वर्यवान और सर्वसामर्थ्यवान प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही है । अंग्रेजी का एक शब्द है गॉडफ़ादर यानी परमपिता । शास्त्रों का मर्म भी यही है कि एक प्रभु को ही अपना गॉडफ़ादर बनाए यानी परमपिता प्रभु को ही अपना एकमात्र परमपिता और पालनहार माने । पर हम यहाँ चूक कर जाते हैं । हम किसी बड़े धनवान या किसी बड़े नेता से अपने को जोड़ने लगते हैं और उसे अपना गॉडफ़ादर तक मान लेते हैं । यहाँ पर दोष हमारा है क्योंकि हमने प्रभु के ऐश्वर्य के सही दर्शन जीवन पर्यन्त नहीं किया । अगर प्रभु के ऐश्वर्य के दर्शन हम कर पाते तो प्रभु, प्रभु और सिर्फ प्रभु की भावना हमारे भीतर प्रबलता से उभर आती और हम प्रभु को ही एकमात्र और एकमात्र गॉडफ़ादर मानते ।
यही भाव भक्तों का भाव रहा है जो कि भक्तराज श्री नरसी मेहताजी के अमर पद "वैष्णव जन तो तेने कहिए" में मिलेगा । भजन की एक पंक्ति में यही भाव है कि "रामनाम शुं ताली रे लागी" यानी किसी भी सांसारिक व्यक्ति या सांसारिक नाम की ताली नहीं । भक्त की ताली सिर्फ प्रभु के लिए ही बजती है ।