लेख सार : मानव योनि सदैव के लिए जन्म–मृत्यु के जंजाल से मुक्त होने की योनि है | इसके सही उपयोग से चौरासी लाख योनियों के कालचक्र से हम सदैव के लिए मुक्त हो सकते हैं । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
चौरासी लाख योनियों में कर्मफल के कारण भटकने के बाद मेरे प्रभु ने कृपा करके हमें "मुक्ति योनि" यानी मानव योनि में जन्म दिया है । यह प्रभु की असीम कृपा होती है क्योंकि इस मानव जीवन का उपयोग हम सदैव के लिए मुक्त होने के लिए कर सकते हैं । मानव जीवन में बुद्धि की जागृति होने के कारण हम मानव जीवन के सही उद्देश्य को समझ सकते हैं ।
एक पशु योनि का आकलन करें, चाहे वो जलचर हो, नभचर हो या थलचर हो, तो हम पाएंगे कि उस जीव का जीवन भोजन तलाशने में, दूसरे बड़े जीव से अपने प्राणों की रक्षा करने में ही बीत जाता है । एक कौआ को या एक गिलहरी को प्रत्यक्ष देखें तो पाएंगे कि प्रातः ही वे भोजन तलाशने निकल पड़ते हैं । दिन भर उन्हें अपने प्राणों की रक्षा के लिए चौकन्ना रहना पड़ता है कि कहीं कोई उनके प्राणों पर घात न करे । एक कौआ या एक गिलहरी भोजन का एक ग्रास ग्रहण करने से पहले कितनी बार इधर-उधर देखते हैं अपनी आत्मरक्षा हेतु । छोटे जीव को बड़े जीव से खतरा रहता है । बड़े जीव को मनुष्य से खतरा रहता है । (बाघ की खाल के लालच के कारण कितने बाघों की जीवनलीला मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए खत्म कर देता है ।) ऐसे में पशु योनि में प्रभु स्मरण, प्रभु भजन प्रत्यक्ष कर पाना संभव नहीं । पशु योनि में बहुत कम अपवाद होते हैं जो अपने पूर्व पुण्य कर्म फल के बल पर आपको मंदिरों के आसपास पलते मिलेंगे । आपने मंदिरों के आसपास बंदरों को, गौ माताओं को, कबूतरों को अक्सर देखा होगा, ये वे प्राणी हैं जिनमें से कुछ निश्चित ही पशु योनि में भी मुक्ति हेतु प्रयास करते हैं । ऐसा करने पर उन्हें मुक्ति तो क्या पता नहीं मिले पर मनुष्य जन्म जरूर मिलता होगा जिससे की वे अपने उस प्रयास को अंजाम तक पहुँचा सके ।
मनुष्य जीवन निश्चित ही प्रभु कृपा का फल होता है क्योंकि चौरासी लाख योनियों के चक्रव्यूह से सदैव के लिए मुक्त होने का यह अदभुत मौका होता है । इस मानवरूपी जन्म का प्रभु सानिध्य में रहकर सर्वोत्तम उपयोग करके हम सदैव के लिए आवागमन से, चौरासी लाख योनियों के कालचक्र से मुक्त हो सकते हैं । इसलिए ही इस मानव योनि को संतों ने "मुक्ति योनि" कहा है ।
पर हमारा दुर्भाग्य देखें कि बड़ी कठिनाई से मिली मानव योनि में भी आकर हम अवांछित कर्म करके नए कर्मबंधन तैयार करते रहते हैं । इस तरह मुक्ति योनि में आकर भी हम "मुक्ति" की जगह "बंधन" अर्जित करते हैं । इससे भी बड़ा दुर्भाग्य तो तब होता है जब माया के प्रभाव के कारण हमारा ध्यान भी हमारी गलती की तरफ नहीं जाता । संतों ने, महापुरुषों ने संतवाणी में चेतावनी देते हुए हमें इस गलती को न दोहराने हेतु कितना आग्रह किया है । कितने चेतावनी के भजन हमें इस संदर्भ के मिलेंगे । श्री कबीरदासजी, भगवती मीरा बाई, श्री सूरदासजी आदि अनेकों संतों के ऐसे कितने पद हमें मिलेंगे जिनमें चेतावनी छुपी है – मानव जीवन का सही उपयोग करने हेतु चेतावनी, प्रभु सानिध्य में रहने हेतु आग्रह ।
प्रभु सानिध्य में आते ही प्रभु हमारा ध्यान तत्काल इस गलती की तरफ करवाते हैं और मानव जीवन में हो रही गलती के सुधार की प्रेरणा भी हमारे हृदय में प्रभु ही जागृत करते हैं । अन्यथा हमारा मानव जीवन भोजन, निद्रा और मैथुन में व्यर्थ चला जाता है । भोजन, निद्रा और मैथुन में अत्यधिक लिप्तता तो पशु योनि के सूचक हैं । मानव जीवन सिर्फ भोजन कमाने में (यानी धन कमाने में), मानव जीवन सिर्फ निद्रा में (यानी आलस्य में), मानव जीवन सिर्फ मैथुन में (यानी वंशवृद्धि में) लिप्त कर देना मूर्खता है । पर कितने व्यक्ति आपको मिलेंगे जो अप्रत्याशित धन अर्जन करने के बाद भी 65 वर्ष की आयु में भी धन अर्जन करने में लगे हुए हैं । कितने व्यक्ति ऐसे मिलेंगे जो आलस्य में ही जीवन व्यतीत किए जा रहें हैं । वे "कुछ नहीं" करने में ही माहिर होते हैं । कितने ही व्यक्ति मिलेंगे जो 6 - 7 संतानों के पालन पोषण में ही लगे हैं । ऐसे में मानव जीवन की उद्देश्य पूर्ति यानी प्रभु के तरफ चलने का न तो उनके पास दृष्टिकोण होता है और न ही प्रभु के तरफ बढ़ने का समय ही होता है ।
पर कुछ सौभाग्यशाली मनुष्य होते हैं जिन पर उनके पूर्व जन्मों में किए संचित पुण्यकर्मों के कारण प्रभु की अनुकम्पा होती है । यह कौन सी अनुकम्पा है ? प्रभु को पाने हेतु भक्ति मार्ग पर चलने का उनका संकल्प, भक्ति मार्ग पर चलने का प्रयास । इससे भी बड़ी अनुकम्पा, जो सबसे बड़ी अनुकम्पा है कि भक्ति मार्ग पर चलने वाले जीव की प्रभु पल–पल रक्षा करते हैं । अगर प्रभु रक्षा नहीं करें तो माया का एक झोंका ही उस साधक को संसार सागर में बहाने के लिए पर्याप्त है । इस तरह प्रभु पल–पल कृपा बरसाते हैं और अंत में उस जीव को आवागमन से सदैव के लिए मुक्त कर देते हैं । इस तरह उस जीव को मिले मानव जन्म के उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है ।
प्रभु की अनुकम्पा या तो पूर्व जन्मों के संचित पुण्यकर्मों के कारण होती है और या इस जन्म में प्रबलता से की गई भक्ति के कारण होती है । अगर थोड़ी सी भी भक्ति हमारे अंदर विद्यमान है तो उसे प्रभु का कृपा प्रसाद मानते हुए उसे निरंतर बढ़ाने का श्रम करना चाहिए जिससे भक्ति का वह पौधा, भक्ति वृक्ष बन कर लहराए और हमारे मानव जीवन के उद्देश्य की पूर्ति करवा दे ।