श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : भक्ति मार्ग पर चलकर हम इतना भक्तिबल विकसित कर सकते हैं जो प्रभु को प्रेम बंधन में बांध देता है । सच्चा ऐश्वर्य, सच्ची संपदा, सच्चा वैभव मात्र और मात्र प्रभु भक्ति में ही है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



वैसे तो मनुष्य इतना निर्बल है कि भक्ति मार्ग पर पैर रखने के लिए, भक्ति मार्ग पर अग्रसर होने के लिए उसे “प्रभु कृपा” की नितांत जरूरत होती है । अपने बल और विवेक पर निर्भर होकर भक्ति मार्ग में अग्रसर होना मनुष्य के लिए कतई संभव नहीं क्योंकि ऐसा करने पर हम माया द्वारा निश्चित ही ठग लिए जाते हैं । इसलिए बिना प्रभु कृपा के भक्ति मार्ग पर पैर रखना भी संभव नहीं क्योंकि माया का प्रचंड वेग हमें भक्ति मार्ग से उड़ाकर अन्यत्र ले जाता है ।


इसलिए जो भी भक्तराज इस भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ पाए हैं, वे सभी प्रभु कृपा का आश्रय लेकर ही ऐसा कर पाए हैं ।


हम भक्तिमार्ग पर दो कदम प्रभु की तरफ बढ़ाते हैं तो प्रभु चार कदम स्‍वयं चलकर भक्त की तरफ बढ़ते हैं । प्रभु के चार कदम बढ़ते ही माया स्वतः चार कदम पीछे हट जाती है ।


पहले सिद्धांत के रूप में यह समझना चाहिए कि जितने-जितने हम प्रभु की तरफ बढ़ते चले जाएंगे उससे अधिक गति से प्रभु भक्त की तरफ बढ़ेंगे । प्रभु अपने और अपने भक्त के बीच की दूरियां समाप्त करने हेतु भक्त से भी अधिक लालायित रहते हैं । इस सिद्धांत को प्रभु की पहली “प्रभु कृपा” के रूप में देखना चाहिए ।


दूसरे सिद्धांत के रूप में यह समझना चाहिए कि जितना-जितना प्रभु हमारी तरफ बढ़ते हैं उतना उतना माया पीछे हटती जाती है । जैसे छाया सदैव मनुष्य के साथ चलती है, यह नियम है । हम कहीं जाते हैं तो छाया को साथ चलने को नहीं कहना पड़ता, वह नियमानुसार स्वतः ही साथ चलती है । वैसे ही माया सदैव प्रभु से विपरीत चलती है, यह नियम है । प्रभु हमारे जीवन में आते हैं तो माया को जाने के लिए कहना नहीं पड़ता, वह स्वत: ही चली जाती है । इस सिद्धांत को प्रभु की दूसरी “प्रभु कृपा” के रूप में देखना चाहिए ।


भक्ति मार्ग में चलने के लिए “प्रभु कृपा” की चर्चा के बाद भक्ति मार्ग में चल कर प्राप्त होने वाले “भक्तिबल” की चर्चा करें ।


भक्ति का बल देखें कि जिस भक्ति मार्ग पर पैर रखने मात्र के लिए प्रभु कृपा की नितांत जरूरत होती है, प्रभु कृपा से उस मार्ग पर अग्रसर होते रहने से एक दिन मनुष्य की भक्ति में इतना बल आ जाता है (या यू कहें कि प्रभु जीव में भक्तिबल इतना विकसित कर देते हैं) कि सर्वेसर्वा प्रभु अपने भक्त के प्रेमाभक्ति के वश में होकर अपना नियम तोड़ने पर बाध्य हो जाते हैं ।


प्रभु और प्रभु की प्रकृति कभी नियम नहीं तोड़ते पर भक्‍त की प्रेमाभक्ति के कारण प्रभु और प्रभु की प्रकृति नियम तोड़ देते हैं । संतों द्वारा की गई श्री रामचरितमानसजी के दो प्रसंगों की व्याख्या हमें इस तथ्‍य की अनुभूति कराती हैं । जब प्रभु के प्रिय श्री भरतजी, प्रभु को राज्‍याभिषेक के लिए मनाने वन जा रहे थे तब प्रकृति ने बिना पतझड़ ऋतु के पतझड़ कर श्री भरतजी के मार्ग में पत्‍तों का बिछौना किया जिससे उनके पैरों को कष्‍ट न पहुँचे । वनवास के दौरान प्रभु ने स्‍वयं अपने लिए कभी पतझड़ करवा पत्‍तों का बिछौना नहीं बनवाया, कंकड़ और पत्‍थरों पर स्‍वयं चले पर अपने भक्‍त के लिए ऐसा करवाया । प्रकृति को नियम तोड़ने के लिए प्रेरित किया । प्रभु ने स्‍वयं भी भक्‍त के लिए अपना नियम तोड़ा । भगवती शबरी माता का उदाहरण यहाँ जीवन्त प्रतीक होता है । मर्यादा अवतार में नियम से बंधे मेरे प्रभु श्री रामजी ने अपना नियम तोड़ा और भगवती शबरी माता के हाथों जूठे बेर खाए । जिन जगतनियंता प्रभु का जूठन हम प्रसादरूप में पाकर स्वयं को कृतकृत्य और धन्य मानते हैं, उन्हीं भक्तवत्सल प्रभु ने अपने भक्त के जूठे बेर बड़े चाव से ग्रहण किए । ऐसा मानना चाहिए कि पहला बेर अपने श्रीमुख में रखते ही मेरे प्रभु ने भगवती शबरी माता का उद्धार कर दिया, उन्हें भवसागर से पार कर दिया, आवागमन से मुक्त कर दिया - फिर इतने बेर क्यों खाए मेरे प्रभु ने । बेर में क्या प्राकृतिक मिठास थी, नहीं उनमें भक्तिभाव की मिठास थी जिसको श्री रामराज्य के दौरान जगजननी भगवती जानकी माता द्वारा राजमहल में भोजन परोसने के समय भी प्रभु सदैव याद करते थे और कहते थे कि यह राजरसोई बहुत स्वादिष्ट बनी है पर फिर भी इसमें वह स्वाद नहीं जो मेरी शबरी के बेर में थी ।


प्रभु कृपा से मिली ऐसी भक्ति प्रभु को भी बाध्य कर देती है नियम तोड़ने के लिए, प्रभु को भी बांध देती है भक्त के प्रेम-बंधन में । इसलिए प्रभु की ऐसी भक्ति का जयगान और जयकार शास्त्रों ने किया है ।


ऐसी अदभुत और दिव्य भक्ति को छोड़कर मनुष्य जीवन में अन्य कुछ पा भी ले तो वह वैसी ही है जैसे सागर की गहराई में मोती लेने गए और कंकड़ लेकर लौटे । मनुष्य जीवन भक्तिरूपी मोती पाने हेतु ही है । पर हमारा दुर्भाग्य देखें कि हम माया के अनगिनत कंकड़ इकट्ठे करके उसे दुनिया के सामने उछालते हुए गौरवान्वित महसूस करते हैं, फूले नहीं समाते कि हमने कितना ऐश्वर्य, कितनी संपदा, कितना वैभव जीवन में पाया और कमाया है । अगर हमारे ऐसे विचार हैं तो हमें समझना चाहिए कि हमारे मनुष्य जीवन को माया ने ग्रास कर हमें ठग लिया क्योंकि सच्चा ऐश्वर्य, सच्ची संपदा, सच्चा वैभव मात्र और मात्र प्रभु भक्ति में ही है जिस हेतु यह दुर्लभ मानव जीवन हमें मिला है ।