लेख सार : माया हमारा निश्चित पतन करवाती है पर जब भक्ति के पराकाष्ठा पर पहुँचने पर मायापति प्रभु हमारा हाथ पकड़ते हैं तो माया हमारे जीवन से निष्क्रिय हो जाती है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
हमें प्रभु से डरना चाहिए और बहुत डरना चाहिए । उनके कोप से नहीं बल्कि हमारे गलत कृत्यों के कारण प्रभु को जो कष्ट पहुँचेगा जिससे प्रभु दुःखी होंगे, इस कारण डरना चाहिए । हमारे गलत कृत्यों के कारण हम "प्रभु का" कहलाने की योग्यता खो देंगे, इस बात से हमें डरना चाहिए ।
प्रभु से ज्यादा अगर किसी से डरना चाहिए तो वह "प्रभु की माया" से क्योंकि प्रभु तो करुणानिधान हैं और डरे हुए जीव को तुरंत अभयदान देते हैं एवं तुरंत उस पर अपनी करुणा की वर्षा करते हैं । पर प्रभु की माया बड़ी कठोर और निर्दयी है । वह करुणा नहीं जानती, सिर्फ अपने बंधन में जकड़ना ही जानती है ।
माया का वेग इतना भयंकर होता है कि वह एक पल में हमें प्रभु से दूर बहा कर ले जाती है । इस वेग के बहाव से वही बचता है जिसने जीवन में प्रभु का आंचल बड़ी जोर से पकड़ रखा हो या यू कहें कि मेरे प्रभु ने जिसका हाथ पकड़ रखा हो । इस एक अपवाद को छोड़कर अन्य सभी को माया बहा ले जाने में सक्षम है ।
प्रभु स्वयं हाथ तभी पकड़ते हैं जब भक्ति पराकाष्ठा तक पहुँचती है । ऐसा होने तक सदैव हमारे जीवन में माया से विचलित होने की आशंका बनी रहती है । विचलित होते ही पथभ्रष्ट होने में देर नहीं लगती ।
श्री अजामिलजी को काम में आसक्त कर कामरूपी माया ने डंका बजा दिया और एक श्रेष्ठ वेदांती का पतन हुआ । भगवती कैकेयी माता को पुत्रमोह में आसक्त कर मोहरूपी माया ने कलंकित किया और उनके कारण मेरे प्रभु का लीलावश वनवास हुआ ।
जैसे राम से बड़ा अगर कुछ है तो वह "राम का नाम" माना गया है, वैसे ही प्रभु के डर से बड़ा अगर किसी का डर है तो वह "प्रभु की माया" का डर है । यह इसलिए कि माया हमें प्रभु से दूर कर देने में सक्षम है, यहाँ तक कि हमें भक्तिपथ से भी पथभ्रष्ट और विमुख करने में सक्षम है ।
इसलिए हमें प्रभु भक्ति में इतनी प्रगाढ़ता लानी चाहिए, भक्ति मार्ग के उस मुकाम तक पहुँचना चाहिए, जहाँ प्रसन्न होकर प्रभु हम पर कृपा और अनुकम्पा करते हुए अपनी माया को (प्रभु की माया एकमात्र प्रभु के ही अधीन है) हमारे जीवन से हटा लेते हैं जिससे फिर कभी भी माया हमें बांधे नहीं और प्रभावित नहीं करे । ऐसा होने पर ही हम आजीवन माया के प्रभाव से बचे रहेंगे अन्यथा जीवन में कभी न कभी माया हमें जरूर पटकनी देगी । माया हमें पटकनी लगाए इससे पहले ही भक्ति द्वारा प्रभु की अनुकम्पा का पात्र बन जाना श्रेष्ठ है ।
प्रभु ने ऐसी अनुकम्पा अपने सभी भक्तों पर समय-समय पर की है । इतिहास प्रमाण है कि ऐसे अनुकम्पा प्राप्त भक्त फिर कभी जीवन में मायाजाल में नहीं उलझे और निश्छल भक्ति मार्ग पर बढ़ते चले गए ।
पहला उदाहरण भक्तराज श्री सुदामाजी का है । मेरे प्रभु ने जब दो मुट्ठी चावल के बदले सुदामापुरी का अलौकिक वैभव भक्त श्री सुदामाजी को दिया तो प्रभु अनुकम्पा के कारण लोभरूपी माया ने उन पर कोई प्रभाव नहीं किया । भक्त श्री सुदामाजी ने अपनी पत्नी भगवती सुशीलाजी को कहा कि इस धन-सम्पत्ति से तुम तीर्थ, दान, पुण्य करो जिसकी इच्छा तुम्हारे मन में सदैव से थी पर धन अभाव के कारण जिसकी पूर्ति नहीं हो पाई थी । पर भक्त श्री सुदामाजी का प्रभु भजन-अर्चन निरंतर अविचलित पहले जैसा अपनी कुटिया में ही चलता रहा । प्रभु की माया ने इस भक्त शिरोमणि को फिर कभी नहीं बाँधा । नहीं बाँधकर लोभरूपी माया ने इस भक्त शिरोमणि का अभिनंदन किया ।
दूसरा उदाहरण भक्तराज श्री नरसी मेहताजी का है । वे बहुत बड़े धन-वैभव का दान करके भक्ति मार्ग पर चल पड़े थे । धनहीन बनने के कारण अपनों द्वारा मुँह मोड़ने पर, व्यंग्य-ताने कसने पर, सगे-संबंधियों के द्वारा अपमानित होने पर भी वैभवरूपी माया ने उन पर कोई प्रभाव नहीं किया । वे भक्ति मार्ग पर शान्त रूप से बढ़ते चले गए और कभी प्रभु से पुनः धन-वैभव वापस पाने की चाह भी नहीं की । इसी कारण मेरे प्रभु और मेरी भगवती रुक्मिणी माता स्वयं उनकी बेटी के लिए मायरा लेकर पधारे । इस तरह वैभवरूपी माया ने इस भक्त शिरोमणि को नमन किया ।
सूत्र यही है कि प्रभु की माया की पटकनी से बचना हो तो खुद प्रभु के बन जाओ और अपने भक्तिबल से प्रभु को अपना बना लो ।
हम अपने मनुष्य जीवन काल में प्रभु के आंचल को पकड़ लें और प्रभु हमारी भक्ति से रीझकर हमारा हाथ पकड़ लें तो उसी क्षण से हमारे जीवन में माया निष्क्रिय और प्रभावहीन हो जाती है ।